Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 60
________________ का जनक होता है। अतः श्रमण महावीर और बुद्ध ने श्रम की अनिवार्यता का प्रत्येक मानव के लिए प्रतिपादन किया। श्रम के साथ विवेक दृष्टि को भी महत्त्व दिया गया है। अन्तःकरण और महान् उद्देश्य से किया गया श्रम ही प्रशंसनीय होता है। शम - श्रम की उपलब्धि शमात्मक होनी चाहिए। सच्चा व्यक्तिगत और सार्वजनिक श्रम अवश्य ही शान्ति की स्थापना करता है। तपस्वी को तप से आत्मा में निर्मलता का अनुभव होता है, वही उसकी उपलब्धि है। श्रमण महावीर और बुद्ध का आशय भी यही था कि बिना सच्ची साधना के मन को सच्ची शान्ति नहीं मिलती है। सम - श्रम के फल स्वरूप मानव को शांति मिलती है और शान्त अवस्था में ही वह उत्कृष्ट ढंग से अपने लिए और सारी मानवता के लिए सोच सकता है। उक्त दो अवस्थाएं विश्व मैत्री और विश्व बन्धुत्व की स्वस्थ भूमिका प्रस्तुत करती हैं। मानव मन में इतनी निर्मलता और सरलता आ जाती है कि वह प्रत्येक मानव और जीवमात्र में आत्मवत् अनुभूति करता है। भारतीय संस्कृति में समन्वय, सर्वभूत मैत्री, अनासक्ति, परलोकगमन, अध्यात्म आदि का अद्भुत योग है। परन्तु ये सभी तत्त्व किन-किन स्रोतों से आकर इसमें एकाकार हुये हैं, यह जानना भी हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है। इसके बिना हमारी दृष्टि वैज्ञानिक नहीं कही जा सकती है। अहिंसक आचरण की तलस्पर्शी चेतना तथा अपरिग्रह रूप जीवन पद्धति निश्चित रूप से जैन और बौद्ध स्रोतों से आयी है। चिन्तन के क्षेत्र में अनेकान्त दृष्टि द्वारा ज्ञान का चिरकाल से अवरुद्ध मार्ग जैनाचार्यों ने ही खोला। श्रमण परम्परा का योगदान अहिंसा - भारतीय समाज को एवं विश्व के समस्त धर्मावलंबियों को श्रमणों ने ही अहिंसा की राह दिखाई। अहिंसक आचरण जैन धर्म का प्राण है। "अहिंसा परमोधर्मः" अर्थात् अहिंसा को परम धर्म कहा गया है। यद्यपि सत्यादि उसके विस्तार है तथापि "अवसेसा तस्सरक्खट्टा'' शेष व्रत अहिंसा की रक्षा हेतु हैं। समस्त जैनाचरण अहिंसामूलक है और चिन्तन अर्थात् विचारधारा अनेकान्तात्मक । समस्त धर्मों की शिक्षाएँ वर्जनात्मक ही होती हैं। अहिंसा भी ऐसा ही शब्द है, किन्तु जैन अहिंसा निषेध के द्वारा अकर्मण्यता को प्रोत्साहित नहीं करती, उसका क्रियात्मकरूप भी है। यथा सत्वेषु मैत्री गुणिषुप्रमोदं, क्लिष्टेषुकृपापरत्वम्। माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ सदात्मा विदधातु देव॥ अर्थात् प्राणी मात्र में मैत्री, गुणीजनों में प्रमोद, दुःखी जीवों के प्रति दयाभाव और विपरीत आचरण या विचार वालों के प्रति माध्यस्थ भाव की ही एक अहिंसक हृदय भगवान से प्रार्थना करता है। अहिंसा की परिभाषा निम्न शब्दों में प्राप्त होती है: तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 - - 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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