Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 58
________________ सभ्यता" वह जटिल तत्त्व है जिसमें ज्ञान, नीति, कानून, रीतिरिवाजों तथा दूसरी उन योग्यताओं और आदतों का समावेश है जिन्हें मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते प्राप्त करता है । लिंटन ने संस्कृति को "सामाजिक विरासत" कहा है।" "मौलिना उस्की के अनुसार संस्कृति सामाजिक विरासत है जिसमें परम्परा से पाया हुआ कला कौशल, वस्तु सामग्री, यांत्रिक क्रियाएँ, विचार आदतें और मूल्य समावेशित हैं । भारतीय संस्कृति की प्रतिनिधि विशेषताएँ समन्वयशीलता भारत वर्ष संस्कृतियों का संगम देश है। इसकी संस्कृति में अनेक धर्म, सम्प्रदायों और जातियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। अतः किसी एक धर्म या जाति के नाम से इसे सम्बोधित नहीं किया जा सकता। ऐसा करना स्वयं को असंस्कृत घोषित करना मात्र होगा। 'संस्कृति के लिए व्यक्ति के अभिमान, राष्ट्र के अभिमान को तिजांजलि देनी पड़ती है। मानव जाति जिस दिन संस्कृति के महत्त्व को समझेगी, उसी दिन वह अपनी आत्मा के साथ साक्षात्कार करने के योग्य हो सकेगी। संस्कृति न तो भौगोलिक सीमा को ही महत्त्व देती है और न राजनीति को ही, यह तो अखिल मानवता की पूंजी है। भारतीय संस्कृति को प्रायः भारतीय या हिन्दु संस्कृति कह दिया जाता है । प्रायः लोगों की यह धारणा रही है कि भारतीय संस्कृति मूलतः आर्यों की संस्कृति रही है और आर्य यहां के मूल निवासी न होकर विदेश से आये थे तथा उनसे पहले भारत में कम से कम दो संस्कृतियाँ विद्यमान थी आस्ट्रिक और द्रविड । बाद में हूण, यूनानी, यूरोपियन और अंग्रेज भी बाहर से आए तथा इनका और इनकी संस्कृति का प्रभाव भारतीय संस्कृति पर पड़ा । अतः कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति की प्रथम महत्त्वपूर्ण विशेषता समन्वयशीलता है । ' 1 अनासक्तिभाव - ऐहिक जीवन और सांसारिक सुखों के प्रति गहरी अनासक्ति का भाव भारतीय संस्कृति की दूसरी विशेषता है । निर्धन हो या धनवान, शासक हो या शासित, बालक हो या वृद्ध सभी का झुकाव परलोक की ओर रहा है । वैराग्य, तितिक्षा और असंग्रह संसार भर में इतना कहीं भी प्रश्रय न पा सके। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि भारत में लौकिक उन्नति हुई ही नहीं परन्तु इस ओर तीव्र भाव नहीं रहा । फलतः आज भी जगत के अनेक देशों की तुलना में हम वैज्ञानिक, आर्थिक और औद्योगिक उन्नति में पिछड़े हुए हैं । इसका कारण यह है कि हमने भौतिक उन्नति को जीवन के विकास में, मुक्तिमार्ग में, बाधक ही माना। अतः कहा जा सकता है कि अनासक्ति भाव भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता रही है। कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त समस्त सुख और दुःख का उत्तरदायी कर्म ही है । कोई अन्य हमें कष्ट नहीं दे सकता तथा मनुष्य अपने पूर्व कृत कर्मों का ही फल तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only 53 www.jainelibrary.org

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