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(1) करना- 'मैं चोर का वध करूँगा' ऐसा कहना। (2) कराना- 'चोर का वध करो।' इस प्रकार दूसरों को हिंसा का आदेश
उपदेश देना। (3) अनुमोदन करना- 'चोर का वध करना अच्छा है', 'ऐसा होना ही
चाहिए'। इस प्रकार हिंसा का समर्थन करना। कभी-कभी इस प्रकार की वाचिक हिंसा साक्षात् हिंसा से भी अधिक हानिकर सिद्ध होती है, इसलिए हिंसाकारी वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
मन, वचन और काया- इन तीनों योगों से जीव कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है। इनमें वचन योग का संसार बहुत विशाल है। इनके शुभ या अशुभ होने के आधार पर इसके परिणाम भी शुभ-अशुभ होते हैं। अशुभ परिणामों से बचने के दो उपाय हैं- एक मौन (वचन गुप्ति) और दूसरा वाणी का सम्यक् प्रयोग। इनमें दूसरा अधिक उपयोगी है, क्योंकि मौन रहकर व्यवहार में जीना बहुत कठिन है। जो वाणी का सम्यक् प्रयोग नहीं जानता, उसका मौन भी अधिक उपयोगी नहीं होता। इसलिए जैनागमों में भाषा की यतना-विवेक को अधिक महत्त्व दिया है। यही साधक की भाषा समिति है। भाषा समिति से युक्त व्यक्ति के लिए यहां तक कहा गया है
वयणविभती कुसलो वयोगतं बहुविधं वियाणेतो। दिवसं पि जंपमाणों सो वि हु वइगत्ततं पत्तो॥2
अर्थात् जो साधक भाषाविज्ञ है, वचन और विभक्ति को जानता है यथा नियमों का ज्ञाता है, वह सारे दिन बोलता हुआ भी वचन गुप्त है।
संदर्भ सूची :1. उत्तराध्ययन 1/14
(ब)दसवैकालिक 8/46 2. दसवै. 8/46
वही (टिप्पण) 4. दसवै. 8/48 5. उत्तरा. 1/4 6. वही (टिप्पण) 7. उत्तरा. 11/7, 8,9
8. उत्तरा. 1/13 9. वही 11/2 10. वही 11. वही 11/7, 8, 9 12. वही 27/11 13. वही 1/25 14. (अ) वही (टिप्पण)
(ब) सुखबोधा टीका (प. 10)
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 -
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