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हैं-1. परिणामवाद, 2. विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य कार्य कारण का वास्तविक परिवर्तन है। जैसे दूध का वास्तविक परिवर्तन दही है, तिल का वास्तविक परिवर्तन तेल है। सांख्य दर्शन सभी प्रकार के परिणाम का कारण जहां प्रकृति को मानता है वहीं रामानुजाचार्य सभी प्रकार के परिवर्तन का कारण ब्रह्म को मानते हैं। सांख्य और रामानुज के परिणामवाद में यही मूलभूत अन्तर है। विवर्तवाद से तात्पर्य है कार्य, कारण का वास्तविक परिवर्तन नहीं अपितु आभासिक परिवर्तन है। जैसे रस्सी में सर्प। रस्सी को देखकर हम सर्प का विवर्त करते हैं न कि सही मायने में सर्प वहां उपस्थित होता है। निम्न चार्ट से यह स्पष्ट है
सत्कार्यवाद
परिणामवाद
विवर्तवाद (शंकर)
प्रकृति परिणामवाद (सांख्य)
ब्रह्म परिणामवाद (रामानुज) सांख्य के सत्कार्यवाद की मीमांसा कर लेने के बाद प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या सांख्य का सत्कार्यवाद तर्क की कसौटी पर सही सिद्ध हो सकता है। सांख्य के सत्कार्यवाद के अनुसार जब कारण और कार्य-अभिन्न है तो परिवर्तन और विकास के लिए कोई स्थान नहीं होगा। यदि किसी दर्शन में विकास और परिवर्तन के लिए स्थान नहीं तो वह दर्शन संसार की व्याख्या कैसे कर सकता है? सांख्य की विडम्बना है कि सांख्य विकासवादी होते हुए भी कारण-कार्य की इस रूप में मीमांसा करते हैं जो कथमपि ठीक नहीं है। जहां सांख्य के सत्कार्यवाद का सकारात्मक पक्ष यह है कि किसी अर्थ के घटित होने के लिए उसी प्रकार के कारण की अपेक्षा होगी वहीं इस सिद्धान्त का नकारात्मक पक्ष है कि सांख्य के कारण और कार्य की समरूपता के लिए उसकी एकरूपता स्वीकार कर विकास और परिवर्तन के लिए कोई अवकाश नहीं रखा, जो ठीक नहीं है। असत्कार्यवाद
कारण-कार्य सम्बन्धी यह मत न्याय-वैशेषिकों का है जिसके अनुसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में सत् नहीं रहता है। असत् कार्यवाद अर्थात् कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में असत् होता है। जब कार्य कारण में नहीं होता है तो इसका मतलब वह नया उत्पन्न होता है, इसीलिए न्याय-वैशेषिक कार्य की उत्पत्ति बिल्कुल
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006
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