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3. सत्कारणवाद __ आचार्य शंकर सांख्य की तरह सत्कार्यवादी हैं। वे भी यह मानते हैं कि कदापि और कथमपि कार्य कारण से भिन्न कोई सत्ता नहीं है। जब कार्य कारण से भिन्न और स्वतन्त्र नहीं है तो दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि कारण ही सत् है, इसीलिए इस सिद्धान्त से सत्कारणवाद कहा जाता है। इसे विवर्त इसलिए कहा जाता है, क्योंकि कि यहां कार्य को विवर्त माना गया है अर्थात् कार्य कारण का वास्तविक रूपान्तरण न होकर आभासरूप है। अपने कारण-कार्य सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए शंकराचार्य कहते हैं कि कार्यरूप सत्ता तो मिथ्या है। वस्तुत: कारण से भिन्न कार्य नहीं है। कहा है- न हि कारणव्यतिरेकेण कार्यनाम वस्तु।'
आचार्यशंकर -न्याय वैशेषिक के असत्कार्यवाद का खण्डन करते हुए कुछ तर्क देते हैं, जो इस प्रकार है1. मिट्टी से घड़ा तथा सोने से सोने के आभूषण को पृथक् नहीं किया जा
सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि कार्य-कारण में अभेद सम्बन्ध है। अतः
कारण से कार्य की उत्पत्ति के आधार पर भेद नहीं किया जा सकता है। 2. असत्कार्यवादियों के अनुसार यदि कार्य पहले से कारण में है तो निमित्त कारण
का क्या प्रयोजन है? आचार्य शंकर के अनुसार निमित्त कारण से किसी नये द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है अपितु द्रव्य में निहित शक्ति की अभिव्यक्ति होती है। कार्य तो केवल कारण की अभिव्यक्तिमात्र है न कि नूतन उत्पत्ति। अतः
कार्य को कारण का अवस्था विशेष मात्र मानना उचित है। 3. असत्कार्यवाद के अनुसार कारण और कार्य दोनों सही नहीं हो सकते।
शंकराचार्य के अनुसार असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती अर्थात्
वंध्या का पुत्र जो असत् है उसे वीर या बहादुर कैसे कह सकते हैं? 4. असत्कार्यवादी के अनुसार कारण के नष्ट होने पर कार्य का आविर्भाव होता
है। आचार्य शंकर के अनुसार यह मिथ्या प्रलाप है। कारण कभी नष्ट नहीं होता। दही बनकर भी दूध नष्ट नहीं होता, अंकुर बनकर भी बीज नष्ट नहीं
होता है। 5. असत्कार्यवाद के अनुसार कार्य नया उत्पन्न होता है, अत: कारण और कार्य
पृथक्-पृथक् है। आचार्य शंकर के अनुसार जो कार्य अभिव्यक्त होता है वह
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006
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