Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ कारण के रहने पर ही होता है, कारण के न रहने पर अभिव्यक्त नहीं होता है, अत: कारण और कार्य में अभेद सम्बन्ध है। इस प्रकार आचार्य शंकर न्याय-वैशेषिकों के असत्कार्यवाद का खण्डन करते हुए सत्कार्यवाद के सत्कारणवाद स्वरूप को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार एक मात्र कारण ब्रह्म ही सत् है। ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है। जगत् ब्रह्म का विवर्त मात्र है। समस्त नामरूपादि जगत् स्वयं तो मिथ्या है, केवल ब्रह्म के विवर्तरूप में ही सत्य है।12 यही शंकर का विवर्तवाद है। अत: शंकर के विवर्तवाद के अनुसार केवल कारण की ही एकमात्र सत्ता है, कार्य की नहीं। मिट्टी ही सत् है। मिट्टी के अनेक विकार हो सकते हैं किन्तु वे विवर्त रूप होंगे। असत्कारणवाद गौतमबुद्ध के चार आर्यसत्य में द्वितीय आर्यसत्य ही दुःख समुदय अर्थात् दुःखों का कारण है। उनके अनुसार दुःख अकारण नहीं है, उनके भी कारण है। संसार की कोई घटना जब अकारण नहीं होती तो दुःख भी अकारण नहीं है। चूंकि बौद्ध शाश्वतवाद में विश्वास नहीं करते। उनके अनुसार कुछ भी शाश्वत या नित्य नहीं है। सब कुछ उत्पन्न और नष्ट होता है। इसीलिए वे अनित्यवादी कहलाते हैं। कालान्तर में उनके अनुयायी क्षणिकवादी कहलाये, क्योंकि सर्वं क्षणिकं को उन्होंने महत्त्व दिया। जब सबकुछ अनित्य है या क्षणिक है तो यहां पर यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि कारण भी असत् है। बौद्ध कारण को सत् नहीं मान सकते। ऐसा करने पर उनका अनित्यवाद या क्षणिकवाद का सिद्धान्त धराशायी हो जायेगा। इसीलिए बौद्ध दार्शनिकों का मानना है कि कारण के असत् अर्थात् नष्ट होने पर कार्य उत्पन्न होता है। अतः बौद्ध दार्शनिक कारण को असत् मानते हैं। बौद्ध दर्शन का कारण कार्य सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद के नाम से जाना जाता है। प्रतीत्य का अर्थ है ऐसा होने पर और समुत्पाद का अर्थ है ऐसा होता है। तात्पर्य है कि कारण के होने पर कार्य होता है। कारण-कार्य के इस चक्र को जन्म-मरण चक्र, भवचक्र कहा गया है। चूंकि इस चक्र में बारह अंग है, अतः इसे द्वादश निदान कहा गया है। जो इस प्रकार है- 1. अविद्या, 2. संस्कार, 3. विज्ञान, 4. नामरूप, 5. षड़ायतन, 6. स्पर्श, 7. वेदना,, 8. तृष्णा, 9. उपादान, 10. भव, 11. जाति, 12. जरा-मरण। इस प्रकार वर्तमान जीवन का कारण भूत जीवन और भविष्य जीवन का कारण 34 .... - तुलसी प्रज्ञा अंक 131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122