Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 42
________________ समवायिकारण और असमवायिकारण से भिन्न निमित्तकारण है। अतः किसी कार्य की उत्पत्ति में तीनों कारण रहते हैं। पर कार्य के लिए तन्तु समवायिकारण। तन्तु रूप या संयोग असमवायिकारण, वेमा और जुलाहा निमित्त कारण हैं। इसके अतिरिक्त योगसूत्र के व्यास भाष्य में नौ प्रकार के कारणों का भी उल्लेख मिलता है, जो इस प्रकार है-1_ 1. उत्पत्तिकारण - बीज पौधे का उत्पत्तिकारण है। 2. स्थितिकारण - जल, मिट्टी, सूर्य, प्रकाश पौधे के स्थितिकारण हैं। 3. अभिव्यक्तिकारण - प्रकाश जिसके कारण अंधेरे में घट व्यक्त होता है। विकारकारण - जामन जिससे दूध में विकृति होकर दही बनता है। प्रत्यय कारण - दुर्गन्ध से सड़ी हुई लाश का अनुभव होता है, अतः वह प्रत्यय कारण है। 6. प्राप्ति कारण - पुरुष को प्रकृति से अलग जानना मोक्ष प्राप्ति का कारण वियोग कारण - वैराग्य संसार में आसक्ति का वियोग कारण है। 8. अन्यत्व कारण - जो दूध को दही, छाछ, मक्खन आदि में परिवर्तित करता है। 9. धृतिकारण - जैसे नींव मकान को खड़ा करने का कारण है। उपर्युक्त विवरण से सिद्ध होता है कि कारण-कार्यवाद भारतीय दर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त है। अन्य दार्शनिक सिद्धान्त भी प्रायः इसी कारण-कार्यवाद पर अवलम्बित हैं। प्रायः सभी भारतीय दर्शन के कारण-कार्यवाद उनके मूलभूत सिद्धान्त के अनुसार है। जैसे सांख्यदर्शन में सब कुछ प्रकृति के विकार हैं तो यहाँ प्रकृति परिणामवाद है। रामानुज सब कुछ ब्रह्म का परिणाम मानते हैं, अतः यहाँ ब्रह्म परिणामवाद है। न्यायवैशेषिक दर्शन में परिवर्तन परमाणु और ईश्वर के माध्यम से होता है। परमाणु के स्कन्ध नये होते हैं, अतः असत्कार्यवाद यहाँ मान्य है। बौद्ध दार्शनिक अनित्यवाद को मानने के कारण असत्कारणवाद में विश्वास करते हैं। शंकराचार्य जगत् को ब्रह्म का विवर्त मानते हैं और 'एकमेव परमार्थ सत् अद्वयं ब्रह्म' मानकर सत्कारणवाद और विवर्तवाद में विश्वास करते हैं। जैन दार्शनिक अनेकान्तवादी होने के कारण सद्सत्कार्यवाद को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार भारतीय दर्शनों में कारण-कार्यवाद सिद्धान्त उनके मूल दार्शनिक सिद्धान्तों के अनुसार होने के कारण ही स्वरूपतः भिन्न-भिन्न है। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 - - 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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