Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 35
________________ आभूषण अपनी उत्पत्ति के पूर्व स्वर्ण पिंड में और लकड़ी की मेज अपनी उत्पत्ति के पूर्व लकड़ी में निहित है तभी तो इन-इन उपादानों से वैसे-वैसे कार्य उत्पन्न होते हैं। दही अपनी उत्पत्ति के पूर्व दूध में निहित है न कि पानी में । तेल अपनी उत्पत्ति के पूर्व तिल में रहता है न कि मिट्टी में या बालू में । अतः उपादान कारण के ग्रहण से ही कार्य होता है। 3. सर्वसम्भवाभावात् सभी कारणों से सब कार्य संभव नहीं है। मिट्टी से सोने का घड़ा संभव नहीं है। लकड़ी से स्टील की मेज संभव नहीं है। पानी से दही संभव नहीं है। यदि असम्बद्ध कारणों से कार्य की उत्पत्ति स्वीकार कर ली जाये तो किसी से भी किसी कार्य की उत्पत्ति स्वीकार की जा सकती है फिर अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग कार्य की आवश्यकता नहीं होती किन्तु सच्चाई यह है कि सभी कार्य सभी कारण से उत्पन्न नहीं होते हैं। 4. शक्तस्यशक्यकरणात् किसी कार्य की उत्पत्ति उसी कारण से संभव है जिस कारण में उसे उत्पन्न करने का सामर्थ्य हो अर्थात् तेल उत्पन्न करने का सामर्थ्य तिल में है। मिट्टी के घड़े के लिए मिट्टी, स्टील की मेज के लिए स्टील एवं सोने के घड़े के लिए स्वर्ण पिण्ड की अपेक्षा होगी। सैकड़ों कुशल कारीगर भी तांबे से सोने का आभूषण नहीं बना सकते। अत: यह स्पष्ट है कि दही जमाने के लिए दूध की अपेक्षा होगी। 5. कारणभावात् कारण और कार्य में कोई अन्तर नहीं है। कार्य कारण का भाव है अर्थात् कार्य का अव्यक्त रूप कारण है और कारण का व्यक्त रूप कार्य है। कार्य कारणात्मक होता है, अत: वह अपनी उत्पत्ति के पूर्व सत् होता है। अन्यत्र भी कहा गया है कि कार्य कारण से भिन्न नहीं होता अत: यदि कारण का अस्तित्व है तो कार्य भी उससे अभिन्न होगा, क्योंकि कारण का जो स्वभाव होता है वही कार्य का स्वभाव होता है। अत: कारण और कार्य में अवस्थाभेद का अन्तर है, अन्य कोई अन्तर नहीं है। सत्कार्यवाद के प्रकार सांख्य के सत्कार्यवाद को तर्क की कसौटी पर सिद्ध कर लेने के बाद अब प्रश्न होता है कि सत्कार्यवाद के कितने भेद हैं ? मूलतः सत्कार्यवाद के दो भेद किये जाते 30 - तुलसी प्रज्ञा अंक 131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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