Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 33
________________ कुछ और दूसरा हो सकता है। नियत पूर्ववर्ती प्रत्येक स्थिति में कारण को पूर्ववर्ती सिद्ध करता है। 3. कारण नियत पूर्ववर्ती ही नहीं, अव्यवहित पूर्ववर्ती होता है। दूरस्थपूर्ववर्ती को कारण न मानने के लिए अव्यवहित पूर्ववर्ती शब्द का उल्लेख किया गया है। कारण कार्य का अव्यवहित पूर्ववर्ती ही नहीं होता अपितु निरुपाधिक पूर्ववर्ती भी होता है। कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि कोई क्रिया पूर्ववर्ती, नियत पूर्ववर्ती और अव्यवहित पूर्ववर्ती होने के बावजूद भी कारण नहीं कहलाती है, क्योंकि वह क्रिया औपाधिक होती है, निरुपाधिक नहीं। जैसे स्विच आन करने पर पंखा चलता है और स्विच ऑफ करने पर पंखा रुक जाता है, किन्तु यहां कारण-कार्य सम्बन्ध इसलिए नहीं, क्योंकि यह किसी उपाधि अर्थात् बिजली पर निर्भर है। बिजली (इलेक्ट्रिक) होगी तभी पंखा चलेगा अथवा नहीं चलेगा। 5. कारण पूर्ववर्ती, नियत पूर्ववर्ती, अव्यवहित पूर्ववर्ती, निरोपाधिक पूर्ववर्ती के साथ-साथ अन्यथासिद्ध से शून्य भी होना चाहिए। अन्यथा सिद्ध से तात्पर्य किसी कार्य से साक्षात् सम्बन्ध न रखने वाले अर्थात् घटोत्पत्ति से पूर्व गधे की उपस्थिति अन्यथा सिद्ध है। अत: घटोत्पत्ति के लिए गधे की उपस्थिति का कोई औचित्य नहीं है, इसीलिए कारण-कार्य की एक विशेषता में अन्यथासिद्ध शून्य कहा गया है। कारण और कार्य पूर्णतया भिन्न-भिन्न भी नहीं होते हैं अर्थात् निरपेक्ष रूप से कोई भी तथ्य केवल कारण या केवल कार्य नहीं होता है। आज का कारण कल का कार्य हो सकता है और कल का कार्य परसों का कारण हो सकता है।' प्राय: सभी भारतीय दार्शनिक कारण-कार्य सम्बन्धी उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार करते हैं किन्तु कारण-कार्य के स्वरूप के सन्दर्भ में प्रायः सभी भारतीय दार्शनिक एकमत नहीं हैं। इसलिए कारण-कार्य के स्वरूप को लेकर भारतीय दर्शन में अनेक वाद दृष्टिगोचर होते हैं, जो इस प्रकार हैं - 1. सत्कार्यवाद (सांख्य) 2. असत्कार्यवाद (न्याय-वैशेषिक) 3. सत्कारणवाद (विवर्तवाद) अद्वैतवेदान्ती शंकर 28 - तुलसी प्रज्ञा अंक 131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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