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भारतीय दर्शन में कारण-कार्यवाद
डॉ. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी
कारण-कार्यवाद दार्शनिक जगत् का एक प्रमुख सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है अर्थात् कोई घटना अकारण नहीं होती है। जब भी कोई घटना घटित होती है तो उस घटना का कोई कारण अवश्य होता है। लगभग सभी दार्शनिक मनीषाओं ने कारणकार्य सम्बन्धी इस सत्य को स्वीकार किया है। अर्थात् प्राय: सभी दार्शनिक कारण कार्य के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। कारण-कार्य की परिभाषा में भी प्राय: सभी दार्शनिक एक मत हैं। दार्शनिकों के अनुसार कारण पूर्ववर्ती होता है (प्राक्भावित्वं कारणत्वम्) और कार्य पश्चातवर्ती होता है (पश्चात् भावित्वं कार्यत्वम्) ऐसा कोई दार्शनिक दृष्टिगोचर नहीं होता है जो कार्य को पूर्ववर्ती और कारण को पश्चातवर्ती कहता हो। इससे यह भी सिद्ध है कि कारण जब भी होगा तब पूर्व में होगा और कार्य जब भी होगा तब कारण के बाद में ही होगा। कारण-कार्य की विशेषताएँ :
प्रायः सभी भारतीय दार्शनिक कारण-कार्य के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। कारण-कार्यवाद के अन्तर्गत कारण-कार्य की निम्न विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं1. कारण पहले होता है और कार्य बाद में अर्थात् काल की दृष्टि से
कारण सदैव कार्य के पहले होता है। कार्वेथरीड के अनुसार कार्य
कारण की अपेक्षा बाद में ही होता है। 2. कारण पूर्ववर्ती ही नहीं अपितु नियत पूर्ववर्ती होता है अर्थात् कभी
ऐसा नहीं कह सकते कि कारण कभी पूर्ववर्ती होता है और कभी
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 -
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