Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 34
________________ . 4. असत्कारणवाद (प्रतीत्य समुत्पाद) बौद्ध 5. सदसत्कार्यवाद (जैन) कारण-कार्य के संदर्भ में भारतीय दार्शनिकों के उपर्युक्तवादों की विस्तृत मीमांसा यहां अपेक्षित है1. सत्कार्यवाद यह सांख्यदर्शन का अभीष्ट मत है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में सत् रहता है। सत्-कार्य अर्थात् कार्य अपने कारण में पहले से निहित रहता है। तात्पर्य यह है कि जो पहले कारण में था वही कार्य के रूप में अभिव्यक्त होता है। सत्कार्यवादी सांख्य कारण से कार्य की नई उत्पत्ति स्वीकार नहीं करते हैं। उनके अनुसार कछुआ जब अपने अंगों को निकालता है तो जो अंग पहले से थे वही अभिव्यक्त होते हैं अर्थात् कार्य में कोई नई उत्पत्ति नहीं होती है। सत्कार्य को सिद्ध करने के लिए ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका में कहा गया है असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात्। शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम्॥ 1. असत्करणात् जो असद् है अर्थात् अस्तित्वविहीन है वह अकारणात अर्थात् किसी का कारण नहीं हो सकता है। जो है ही नहीं, जिसका कोई अस्तित्व नहीं है वह भला किसी का कारण कैसे हो सकता है ? वन्ध्यापुत्र जिसका कोई अस्तित्व नहीं है, खरगोश की सींग का भी कोई अस्तित्व नहीं है तो ये किसी के कारण नहीं हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्ण कारण में यदि निहित नहीं होगा तो उसकी उत्पत्ति कभी संभव नहीं है। गीता भी कहती है-नासतो विद्यतेभावः अर्थात् असत् से कोई भाव उत्पन्न नहीं हो सकता है। 2. उपादान ग्रहणात् किसी कार्य की उत्पत्ति के लिए जैसे कारण का सत् होना आवश्यक है वैसे ही कार्य की उत्पत्ति के लिए उपादान कारण का अस्तित्व आवश्यक है। उपादान कारण मूल होता है। प्रत्येक कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व जिस कारण में निहित होता है वह उपादान कारण ही है। मिट्टी का घड़ा अपनी उत्पत्ति के पूर्व मिट्टी के पिंड में, सोने का तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 - 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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