Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ अशुभानि निराचष्टे तनोतिशुभसन्ततिम्। स्मृतिमात्रेण यत् पुंसां ब्रह्मा तन्मंगलं विदुः॥ अर्थात् सारे अशुभों का विनाश तथा शुभ-परम्परा का विस्तार जिसके स्मरण मात्र से होता है, वह ब्रह्म मंगल है। जैनाचार्य यतिवृषभ ने 'तिलोयपण्णत्ति' में लिखा है-- गालयदि विणासयदे घादेदि दहेदि हंति सोधयदे। विद्धंसेदि मलाई जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं॥ अर्थात् जो पाप मलों को गालित करता है, विनष्ट करता है, घटित करता है, जलाता है, मार देता है, शोधित करता है और विध्वंस करता है, उसे मंगल कहते हैं। मंगं नारकादिषु पवडतं सो लाति मंगलं । लाति गेण्हइ त्ति वुत्तं भवति । अर्थात् नारकादि में गिरते हुए को जो बचाता है, वह मंगल है। मंगं सुखं लातीति मंगलम्। मलं गालयति विनाशयति इति मंगलम्। अर्थात् जो सुख को लाता है, पाप मल का विनाश करता है वह मंगल है। इस प्रकार जो पाप विनाशक, पाप प्रक्षालक, सुखकारक, परमाह्लादक है, उसे मंगल कहते हैं। ३. मंगल के पर्याय कोश ग्रंथों में मंगल के अनेक पर्यायों का उल्लेख मिलता है। जैसे-भावुक, भव्य, कल्याण, भविक, शुभ, क्षेत्र, प्रशस्त, भद्र, स्वश्रेयस्, शिव, अरिष्ट, कुशल, भद्र, शस्त। भागवत पुराण में अनेक पर्यायों का निर्देश हैमंगलाय च लोकानां क्षेमाय च भवाय य॥ वैद्येक रत्नमाला में अनेक नामों का उच्चारण हैकल्याणं मंगलं क्षेमं शातं शर्मं शिवं शुभम्। अमरकोशकार ने अमरकोश' में विभिन्न नामों का वर्णन किया हैनन्दथुरानन्द शर्मं शात सुखानि च श्वश्रेयसं शिवं भद्रं कल्याणं मंगलं शुभम्। भावुकं भविकं भव्यं कुशलं क्षेम शस्तम्॥ 12 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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