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पुष्पादि को स्वस्ति कहते हैं। मंगल, निरुपद्रव, पापप्रक्षालनादि स्वस्ति है । स्वस्ति का प्रथम श्रवण भी मंगलवाचक माना जाता है। आचार्य भगुरि ने स्वस्ति उपपद को मंगल, आशीर्वाद, पापविनाशकादि अर्थों में स्वीकार किया है-स्वस्ति मंगलाशीर्वादपापनिणेजनादिष्विति अमरकोशकार ने लिखा है स्वस्त्याशीः, क्षेमपुण्यादौ प्रकर्षे लंघनेऽपि26 स्वस्तिपूर्वक 'कै शब्दे' धातु से क (अ) प्रत्यय होकर 'स्वस्तिक' शब्द बनता है। 'स्वस्तिक क्षेमं कायति इति' अर्थात् जो क्षेम, मंगल पुण्य का विस्तार करता है, पाप का विनाशक है, वह स्वस्तिक है। स्वस्ति शब्द से स्वार्थ में क प्रत्यय करने पर भी स्वस्तिक शब्द बनता है। जो मंगलकारक हो वह स्वस्तिक है। तण्डुलादि मांगलिक द्रव्यों के द्वारा मंगलसंवर्द्धन और अमंगलविनाश के लिए मांगलिक चिह्न की रचना आज भी की जाती है।
स्वस्तिक प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति सभ्यता और जनमानस का अभिन्न अंग रहा है। वैदिक साहित्य से लेकर आज तक के सभी सांस्कृतिक आचार्यों, मनीषियों और प्रज्ञापुरुषों ने स्वस्तिक की महत्ता को रेखांकित किया है।
वेदों में 'ऊं स्वस्ति' से उच्चरित अनेक मंत्रों द्वारा विभिन्न प्रकार के देवों की अभ्यर्थना की जाती है। आज भी स्वस्तिवाचक मंत्र आस्तिक समाज का अभिन्न अंग बना हुआ है। वेद में यह मंत्र उदिष्ट है
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नःपूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
अन्यत्र भी अनेक मंत्रों में स्वस्ति शब्द का प्रयोग हुआ है । स्वस्तिक अनेक देवों का प्रतीक माना जाता है। बेन्जामिन रोलैण्ड ई. टामस तथा वासुदेवशरण अग्रवाल आदि कलाविदों ने स्वस्तिक को सूर्यदेव का प्रतीक माना है। यह ब्रह्मा का भी प्रतीक है। चतुरानन ब्रह्मा स्वस्तिक की चारभुजाओं के प्रतीक है।
जैन पम्परा में स्वस्तिक सिद्ध का प्रतीक है। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार उसे दूसरा जन्म प्राप्त होता है। चार योनियां-देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक है। सिद्ध पुरुष इन चार योनियों के आवागमन से सर्वथा मुक्त होता है। इसी दार्शनिक मान्यता का प्रतीक स्वस्तिक है। मध्यबिन्दु से प्रारंभ चार भुजाएं पुनर्जन्म की चार अवस्थाओं के प्रतीक हैं, किन्तु सिद्ध पुरुष इनसे मुक्त होता है। स्वस्तिक की चार भुजाओं की मुड़ी रेखाएं व्यक्त करती हैं कि सिद्धावस्था को प्राप्त पुरुष के लिए आवागमन की ये अवस्थाएं बंद किंवा समाप्त हो गयी हैं। सिद्ध शब्द स्मरण एवं उच्चारण मंगल के साथ दृष्टि मंगलात्मक भी है। उसी तरह स्वस्तिक स्मरण, उच्चारण और दर्शन त्रिविध रूप से मंगलात्मक है, इसलिए सिद्ध का प्रतीक है। यह सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का प्रमुख चिह्न है।
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 -
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