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धारणा से जैनों की प्राचीनता ही सिद्ध की जा सकती है। इनकी सजीवता तो लगभग अविश्वसनीय है । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनों ने वैदिक देवताओं को मध्यलोकी बना दिया। ५. जीवों में इंद्रियां--पंचास्तिकाय में कृमि, पिपीलिकादि की वर्णित इंद्रियों की
मान्यता आधुनिक वैज्ञानिक परीक्षणों की दृष्टि से अपूर्ण लगती है । यंत्रपरीक्षा के चक्षुग्राह्यता से सूक्ष्मतर होने से कुछ नए तथ्य प्रकट हुए हैं। इससे शास्त्रीय विवरण विसंवाद की कोटि में आ गये हैं। जीवों के जन्म-संबन्धी विवरण भी इसी
कोटि में हैं। ६. विवरण भिन्नता---कुंदकुंद के पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती साहित्य के अनेक विवरणों में भिन्नता पाई जाती है :----- १. बंध हेतु चार (उमास्वामी ५ बंध हेतु) २. आचार पांच (उमास्वामी ३ रत्न) ३. तत्व/पदार्थ नव, क्रम आगमिक (उमास्वामी ७ तत्व, क्रम मनोवैज्ञानिक)
(औपपातिक १० पदार्थ)
(उपासक दशा ११ पदार्थ) ७. विचारों के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि--- शास्त्रीय अध्ययनों से ऐसा प्रतीत होता
है कि अनेक जैन मान्यताएं विभिन्न विचार सरणियों को पार करते हुए कालचक्र में विकसित हुई हैं। दीक्षित ने इस विषय में अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है।
इनमें में बहुतों का उल्लेख कुंदकुंद के ग्रन्थों में नहीं पाया जाता । ८. आध्यात्मिक विवरणों की आपतित विसंवादिता ---अनेक भौतिक विवरणों की
तत्तद् युगीन एवं आधुनिक विसंवादिता के कारण इन ग्रन्थों के अनेक आध्यात्मिक विवरणों की प्रामाणिकता भी परीक्षणीयता के घेरे में आती जा रही है।
इस प्रकार इन सूचनाओं की संख्या अगणित हो सकती है । इनसे यह स्पष्ट है कि इन विवरणों में अनेक प्रकार की विसंवाद की स्थिति आई है । इस स्थिति के रहते आगमों की कालिक प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध रहेगी। इसलिए इन्हें "श्रुतकेवली भणितं" कहना या मूलाधार मानना तर्कसंगत नहीं लगता। "उभावपि ग्राह्यो, सत्यं किमिति सर्वज्ञ एव जानाति" की दसवीं सदी की धारणा भी इस युग में संतोषप्रद नहीं लगती । इनकी प्रामाणिकता को स्थिर रखने के लिए अनेक विद्वानों ने विचार किया है और कुछ सुझाव दिए हैं। विद्वत् जन इन पर विचार कर नई पीढ़ी को मार्गदर्शन दें, यही इस शोध पत्र का उद्देश्य है। यह माना जाता है कि १ ज्ञान अनन्त है एवं सतत प्रवाहशील वर्धमान है। यहां प्रवाहशीलता की धारणा व्यावहारिक है, यह सर्वज्ञता की सामान्य धारणा से मेल नहीं खाती। हां, यदि सर्वज्ञता की परिभाषा कुंदकुंद की आत्मज्ञता के रूप में मानी जावे तो निश्चित रूप में आत्मज्ञान अपरिवर्तनीय एवं स्थिर है, अनंत है। यह धारणा परिवर्तनशील विश्व पर लागू नहीं होती।
बड २१,पंक १
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