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होने पर ही दु:खनिवृत्तिरूप मोक्ष माना गया है । इस प्रकार प्राय: सभी दर्शनों ने श्रद्धान और आचारणरहित ज्ञानमात्र से मोक्ष माना है।
उपसंहार जैनदर्शन में मोक्ष के सम्बन्ध में जैसा तथ्यपूर्ण विचार प्रस्तुत किया गया है वैसा विचार अन्य किसी दर्शन में नहीं मिलता है। कर्मबद्ध आत्मा का संसार अवस्था में जो स्वरूप आच्छादित या अप्रकट रहता है वही अनन्त ज्ञानादि स्वरूप मुक्त अवस्था में पूर्णरूप से प्रकट हो जाता है । बन्धन या परतन्त्रता किसी को प्रिय नहीं है। एक पक्षी को स्वर्ण के पिंजड़े में भी बन्द रहना पसन्द नहीं है। यदि किसी पुरुष को स्वर्ण की बेड़ियां पहना कर जेल में रखा जाय तो वह बन्धन भी उसे पसन्द नहीं होगा । प्रत्येक प्राणी बन्धन से छूटना चाहता है । अत: बन्धन से छूटने के बाद उसे विशिष्ट स्वरूप या सुख आदि की उपलब्धि होना स्वाभाविक है। यदि मुक्त अवस्था में आत्मा का अस्तित्व ही न रहे अथवा वह अपने ज्ञानादि स्वरूप को खो दे तो उक्त प्रकार की मुक्ति को कोई पसन्द नहीं करेगा । जैसा कि नैयायिक-वैशेषिक मुक्ति के विषय में कहा गया है । अत: कर्म मल का क्षय होने पर निष्कलंक अनन्तज्ञानादिरूप आत्मस्वरूप की उपलब्धि को ही मोक्ष मानना युक्तिसंगत है। इसी प्रकार मुक्ति का साधन ज्ञानमात्र को न मान कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की पूर्णता तथा एकता को मानना भी आवश्यक है।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ।।
खं. ३ अं. २-३
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