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जहा य किंपागफला मणोरमा
रसेण वण्णण य भुज्जमाणा । ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा ।
एओवमा कामगुणा विवागे ॥1 -जैसे किंपाक फल खाते समय रस और वर्ण (तथा गन्ध और स्पर्श) से मनोरम होते हैं और पचने पर क्षुद्र जीवन का नाश कर देते हैं, काम-गुण भी विपाककाल में ऐसे ही होते हैं ।
3. विषय और किम्पाकफल की तुल्यता को उपस्थित करते हुए उत्तरज्झयणाणि की जो गाथाएँ उद्ध त की गई हैं उन्हीं के भाव की एक जातक-कथा पाई जाती है, जो इस प्रकार है :
एक कुलपुत्र बुद्ध-शासन में अत्यन्त श्रद्धा से प्रवजित हुआ। एक दिन श्रावस्ती में भिक्षा-चर्या करते हुए एक अलंकृत स्त्री को देखकर आसक्त हो गया। उसके आचार्य-उपाध्याय उसे बुद्ध के पास लाये ।
बुद्ध ने उससे पूछा-"भिक्षु ! क्या तू सचमुच उत्कण्ठित है।" भिक्षु ने कहा- "बात ऐसी ही है।"
बुद्ध ने कहा--- "हे भिक्षु ! ये पाँच काम-गुण (भोग) भोगने के समय सुन्दर लगते हैं पर उनका भोगना निरय आदि में उत्पत्ति का कारण होने से किंपाकफल सदृश है । किपाकफल वर्ण, गन्ध तथा रस से युक्त होता है, परन्तु खाने पर प्रांतों को टुकड़े-टुकड़े कर प्राणों का नाश कर देता है। पहले बहुत से मनुष्य उसके दोष को न जान, उसके वर्ण, गन्ध तथा रस में आसक्त हो उस फल को खाकर प्राण गंवा बैठे।"
यह कह बुद्ध ने पूर्वजन्म की कथा कही-"पूर्व समय में वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त के राज्य करने के समय बोधिसत्त्व ने सार्थवाह के रूप में पाँच सौ गाडियों के साथ पूर्व से पश्चिम को जाते समय एक जंगल के द्वार पर पहुंच मनुष्यों को एकत्रित कर उपदेश दिया-"इस जंगल में विषवृक्ष हैं । मेरे बिना पूछे, कोई किसी ऐसे फल को न खाये जिसे पहले न खाया हो।"
___ मनुष्यों ने जंगल को पार कर, उसके छोर पर फलों से लदा हुआ एक किंपाक वृक्ष देखा। उसके टहनियाँ, शाखाएँ, पत्ते तथा फल आकार, वर्ण, रस और गन्ध की
1. उत्तरज्झयणाणि 32/20
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तुलसी प्रज्ञा
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