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चूणि-कथा (हिन्दी भाषान्तर)
मनि मनक
अनु. मुनि दुलहराज
भगवान् महावीर के पांचवें गणधर सुधर्मा थे। उनके बाद जम्बूस्वामी हुए। उनके बाद प्रभव गणधर बने । एक दिन प्रभव के मन में यह विचार प्राया-(मेरे पश्चात्) परम्परा को अव्यवच्छिन्न रखने में समर्थ गणधर कौन होगा ?' उन्होंने अपने गण की ओर दृष्टि डाली । कोई उपयुक्त नहीं लगा तब समूचे संघ को, फिर गहस्थ-वर्ग को ध्यान से देखा । उनकी दृष्टि यज्ञ में दीक्षित राजगृह निवासी शय्यंभव ब्राह्मण पर जा टिकी । उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि यही गणधर होने योग्य है।
आचार्य प्रभव राजगृह आए और साधुओं के संघाटक को बुलाकर कहा'आर्यों ! भिक्षा के लिए यज्ञवाट में जाकर 'धर्म लाभ' कहो! वहां तुम्हारा अतिक्रमण किया जायेगा, तुम्हें बाहर निकल जाने के लिए कहा जायेगा, तब तुम कहनाआश्चर्य है कि तत्त्व नहीं जाना जा रहा है।'
प्राचार्य के आदेशानुसार संघाटक मुनि वहां गए और वैसे ही कहा । यज्ञवाट के द्वार के पास बैठे शय्यंभव ने यह सुनकर सोचा-'ये उपशान्त और तपस्वी मुनि असत्य नहीं बोलते ।' वे अध्यापक के पास आकर बोले-'तत्त्व क्या है ?'
अध्यापक ने कहा- 'वेद तत्त्व हैं ?'
तब शय्यंभव ने तलवार निकालते हुए कहा-'बोलो, यदि तुम नहीं बताओगे तो तुम्हारा सिर काट लूंगा।'
अध्यापक ने सोचा-'शिरच्छेद का अवसर उत्पन्न होने पर इस परम तत्त्व को बता देना चाहिए। वह समय (अवसर) आ चुका है । शय्यंभव को उन्होंने कहाआईत् धर्म तत्त्व है। इसीलिये इस यूपस्तम्भ के नीचे.स्थित अर्हत् की रत्नमयी प्रतिमा की वेदमंत्रों द्वारा स्तुति की जाती है।'
तब शय्यंभव अध्यापक के चरणों में गिर पड़े। यज्ञवाट की समूची सामग्री उन्हें देकर वे उन मुनियों की खोज में निकल गए । खोजते-खोजते वे आचार्य प्रभव के पास पहुंचे । आचार्य और साधुओं को वन्दना कर बोले-'धर्म क्या है ?'
तुलसी प्रज्ञा
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