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मनुष्य की चेतनसत्ता शरीर, सस्कार, इन्द्रिय और मन से परतंत्र बनी हुई है । इस परतंत्रता की पकड़ को ढीला करना ही साधना है ।
शरीर की शिथिलता प्राप्त होते ही चेतनसत्ता आनंद के रूप में अपने अस्तित्व को प्रगट करती है । आप शरीर को शिथिल करने का अभ्यास बढ़ाते जाइये, आपकी आनंदानुभूति तीव्र होती जाएगी ।
रूप
संस्कारों की शिथिलता प्राप्त होते ही चेतनसत्ता शांति और शक्ति में अपने अस्तित्व को प्रगट करती है । आप संस्कारों को क्षीण करने का ध्यान करते जाइये, आपका आत्मबल प्रखर होता चला जाएगा ।
इन्द्रिय और मन की शिथिलता प्राप्त होते ही चेतनसत्ता प्रत्यक्षानुभूति के रूप में अपने अस्तित्व को प्रगट करती है । आप इन्द्रिय और मन की क्रिया को शिथिल करने का अभ्यास करते चलिए, आपकी प्रत्यक्षानुभूति प्रकृष्ट होती चली जाएगी।
आनन्द, शांति शक्ति और प्रत्यक्षानुभूति — ये चेतनसत्ता के मौलिक गुण हैं । परतंत्रता की स्थिति में ये शारीरिक सुख संघर्षबल, आवेगबल और परोक्षानुभूति से आवृत हो जाते हैं । इनकी आंतरिक छटपटाहट ही चेतनसत्ता को स्वतंत्रता की दिशा में गतिशील बनाती हैं । उस गतिशीलता ने ही मनुष्य को सत्यशोध के लिए प्रेरित किया है, अज्ञात को ज्ञात करने को प्रचेष्टा है ।
शरीर हमारी साधना का क्षेत्र है । हम उस पर नियंत्रण स्थापित करते हैं । इसे कुछ लोग हठयोग कहते हैं ।
संस्कार हमारी साधना का क्षेत्र है । हम उसे परिष्कृत करते हैं । कुछ लोग इसे राजयोग कहते हैं ।
इन्द्र और मन हमारी साधना के क्ष ेत्र हैं । हम उन पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते हैं । कुछ लोग इसे ज्ञानयोग कहते हैं ।
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योग हमारी साधना का मूल तत्त्व है। योग के दो अर्थ होते हैं— समाधि और सम्बन्ध । जीवनक्रम में सम्बन्ध पहले होते हैं, समाधि बाद में प्राप्त होती है । व्यक्ति जन्म लेते ही सामाजिक बन जाता है । उसके साथ परिवार, समाज और राष्ट्र के सम्बन्ध जुड़ जाते हैं। मन की समाधि तब प्राप्त होती है जब वह प्रज्ञावान् बनता है ।
संबंधों की स्वस्थता के क्रम में समाधि पहले प्राप्त होती है, संबंध बाद में । जिसके मन का समाधान होता है, वही संबंधों को स्वस्थ बनाए रख सकता है | असमाहित मन वाला संबंधों का ठीक निर्वाह नहीं कर सकता ।
खं. ३ अं. २३
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