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अर्थात् आत्मघाती जन असुर्या नामक अन्धलोक में जाते हैं। (ग) ननु च तस्मादुह न पुरायुष: स्व:कामी प्रेयात् इति श्रु तिः ।
___ अर्थात् स्वर्ग का भी पुरुष आयुष्य समाप्त होने के पूर्व अपनी देह का त्याग न करे।
'लोकत-वचन' का अर्थ है स्मृतियों आदि में आए निषेधात्मक कथनों से ।
एक मत यह कि महाभारत का कथन विप्रों पर लागू नहीं होता। दूसरा मत विप्रों पर भी लागू है क्योंकि अग्नि पुराण । 111/81 में कहा है :
न वेदवचनाद्विप्र न लोकवचनादपि ।
मतिरुत्क्रमणीयाते प्रयागमरणं प्रति ।। अर्थात् ब्राह्मण वेद-वचन अथवा लोक-वचन से अन्त समय में प्रयाग में मरण करने का विचार न छोड़े।
2. महाभारत वनपर्व में कहा है : यह वात सनत्कुमार तथा महात्मा व्यास ने कही है पथ्दक सब तीर्थों में उत्तम है जो सरस्वती के उत्तर तीर पर रहे हुए इस तीर्थ में जप-परायण होकर अपने शरीर का त्याग करता है, उसे पुनमत्यु का भय नहीं रहता ।118
ऐसा कथन महाभारत शल्यपर्व में भी है ।119 3. कुर्म पुराण में कहा है :
(क) 'जो व्यक्ति अपने प्राणों का गंगा-यमुना के संगम में त्याग करता है उसे वही गति मिलती है जो योगयुक्त संन्यासी मनीषि को प्राप्त होती है । जो इच्छापूर्वक या अनिच्छा से गंगा में मरण करता है वह मरने पर स्वर्ग में जाता है और फिर उसे नरक का दर्शन नहीं होता है ।'120
118. उत्तमं सर्वतीर्थानां यस्त्यजेदात्मनस्तनुम् ।
पथूदके जप्यपरं नैनं श्वोमरणं तपेत् ॥ गीतं सनत्कुमारेण व्यासेन च महात्मना।
__(83/146/147) 119. सरस्वत्युत्तरे तीरे यस्त्यजेदात्मनस्तनुम् । पथूदके जप्यपरो नैनं श्वोमरणं तपेत् ।।
(39/33/34) 120. या गतिर्योगयुक्तस्य संन्यस्तस्य मनीषिणः ।
सा गतिस्त्यजत: प्राणान् गंगायमुनसंगमे ।। अकामो वा सकामो वा गंगायां यो विपद्यते । स मृतो जायते स्वर्गे नरकं च न पश्यति ।।
(1/36/147)
तुलसी प्रज्ञा
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