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(ज) विवस्वन् कहते हैं: "धर्मार्जिन में असमर्थ और पापावरण करने वाले ब्राह्मण के लिए भी तीर्थ में जा कर प्राण त्याग करने को कहा है। धर्मार्थ के लिए देवता ब्राह्मणों में रह कर जीना चाहते हैं । अत: अधर्माचरणपूर्वक जीनेवाला ब्राह्मण तीर्थ में जा कर देह त्याग करे ।" 125 क
(4) पद्मपुराण में कहा है
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(क) “जो अग्निप्रवेश कर अथवा अनशन कर नर्मदा और कावेरी के संगम पर प्राय - विसर्जन करता है उसे अग्निवर्तिका गति प्राप्त होती है ।" 126
(ख) "जो मनुष्य जानकर या अनजाने में, इच्छा से या अनिच्छा से गंगा में मरता है वह मरने पर स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करता है ।'
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(5) स्कन्दपुराण में कहा है : "जो इस तीर्थ में किसी भी प्रकार से प्राणत्याग करता है उसके आत्मघात का पाप नहीं होता और वह इच्छित वस्तु प्राप्त करता है ।' 128
(6) मत्स्य पुराण में कहा है : "जो अमरकण्टक में अग्नि, विष, जल अथवा अनशन द्वारा मरण प्राप्त करता है उसे पूर्व कथित भोगों की प्राप्ति होती है । जो अमरकण्टक की चोटी से गिरता है, उसकी वायु में उड़ते हुए वस्त्र की तरह अनवर्तिका गति होती है । " 129
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125क. धर्मार्जनासमर्थस्य कर्तुः पापांकितस्य च ॥ ब्राह्मणस्याप्यनुज्ञातं तीर्थ प्राणविमोक्षणम् । इच्छानि जीवितं देवा धर्मार्थं तु द्विजातिषु । अधर्मजीविनस्तीर्थे देहत्यागो विधीयते । ।
126. अग्निप्रवेशं यः कुर्यादात्तथाकुर्यादनाशनम् ।
(याज्ञ० 3 / 6 की अपरार्क टीका में उद्धृत ) ।
अनिवर्तिका गतिस्तस्य यथा मे शंकरोऽब्रवीत् । । (1/16/14,15)
127. ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कामतोऽकामतोऽपि वा । गंगायां च मृतो मर्त्यः स्वर्गं मोक्षं च विन्दति । । (fo: 60/65) 128. यथा कथंचित्तीर्थेस्मिन् प्राणत्यागं करोति यः । तस्यात्मघातदोषो न प्राप्नुयादीप्सितानपि ।
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129. एवं भोगो भवेत्तस्य यो मृतोऽमरकण्टके ।
अग्नौ विषजले वापि तथा चैव ह्यनाशके । अनिवर्तिका गतिस्तस्य पवनस्थाम्बरे यथा । पतनं कुरुते यस्तु अमरेशान्नराधिप । ।
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(186/34,35)
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तुलसी प्रज्ञा
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