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3 : श्रात्मघात के कारण
याज्ञवल्क्य 31 154-155 में कहा है : "जो ज्ञातव्य विषयवित् ग्रात्मा में, गुणत्रय की साम्यावस्था रूप प्रकृति में और अहंकारादि विकारसमूह में निर्विशेष अर्थात् विवेकहीन होता है, वह अनशन, अग्नि शस्त्र, जल, प्रपतन आदि द्वारा आत्महत्या करने के लिए उद्यत होता है । इस प्रकार नानाविध अकार्यों में प्रवृत्त असंयतात्मा असत्कार्यों में अग्रसर हो उन-उन कर्मों से राग, द्व ेष और मोह के वशीभूत हो जाता है। क
4 : आत्मघात के निषेधक वाक्यों को नगण्यता
हिन्दू शास्त्रों में आत्मघात के निषेधक वाक्य नगण्य हैं । यत्र-तत्र ऐसे वाक्य मिलते हैं, जिनमें आत्मघाती को पापी कहा गया है । इसके अतिरिक्त अशौच आदि के विधान में आत्मघाती एवं प्रकृत मृत व्यक्ति के बीच जो अन्तर रखा गया है उससे आत्मघात के विरुद्ध प्ररूपित हेय दृष्टि का ज्ञान होता है । कुछ ऐसे वाक्य भी प्राप्त हैं जिनमें आत्मघाती को पापी कहा गया है । 14 इसके अतिरिक्त आत्मघात के सीधे निषेध वाक्यों की स्थिति वही है जो यहां व्यक्त है ।
यहां हम निषेधक वाक्यों पर कुछ ऊहापोह रखेंगे । स्पष्ट उल्लेख शतपथ ब्राह्मण ( 10/2/6-7 ) में है । वहां सौ वर्ष तक जीता है वह वही अमृत प्राप्त करता है । अतः पूरा होने के पूर्व स्वेच्छा से न मरे क्योंकि इससे नहीं मिलती। 15"
( ख ) आत्मत्यागिन्यः विषाग्न्युदको बन्धनाद्य रात्मानं यास्त्यजन्ति । (याज्ञ० 3/6 की मिताक्षरा व्याख्या) । (ग) विषोवन्धनादिभिः बुद्धिपूर्वमात्मानं ये व्यापादयन्ति ते आत्मघातिनः ।
12 क. ज्ञ ेयज्ञ े प्रकृतौ चैव विकारे चाविशेषवान् । अनाशकानलाघातजलप्रपतननोद्यमी ॥
एवं वृतो विनीतात्मा वितथाभिनिवेशवान् । कर्मणा द्वेषमहाभ्यामिच्छया चैव बध्यते ॥
( याज्ञ० 3 / 20 की मिताक्षरा व्याख्या के बाद का अंश )
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13. इस विषय में चौथा प्रकरण देखें |
आत्मघात के विरुद्ध कहा है : "जो भी
वह अपना आयुष्य आगे के लोक बनने में मदद
खं. ३ अ. २-३
14. इस विषय में पांचवां प्रकरण देखें ।
15. यो वा शतं वर्षाणि जीवति स हैवैतदमृतम् ननु च तस्माद् ह न पुरायुषः
स्वःकामी प्रोयादलोक्यं हैत ...
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