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पाण्डव और यशस्विनी द्रौपदी सब के सब उपवास का व्रत लेकर पूर्व दिशा की
ओर मूह करके चल दिए (1/29)83 । सब योगयुक्त महात्मा और त्यागधर्म का पालन करनेवाले थे (1/30) | वन को प्रस्थित पाण्डव क्रमश: लालसागर के तट पर पहुंचे (1/33) । वहां अग्नि के कथन पर अर्जुन ने गाण्डीव धनुष और दोनों अक्षय तरकस जल में फेंक दिए (1/42) । योगधर्म में स्थिति हो सब बड़ी शीघ्रता से चल रहे थे । 1 सबसे पहले द्रौपदी लड़खड़ा कर पृथ्वी पर गिर पड़ी (2/3) । उसके बाद सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम क्रमश: भूमि पर गिर पड़े और मृत्यु को प्राप्त हुए (218,12,18,23)। सब के सब स्वर्ग पहुँचे (3/5,6)। युधिष्ठिर उसी शरीर से स्वर्ग पहुँचे । (3/6,22,28)।
(5) एक व्वाध के महाप्रस्थान गमन करने का वर्णन महाभारत में इस प्रकार मिलता है:
एक व्याध ने कबूतरी को उठाकर पिंजरे में डाल दिया। व्याध भूख से पीड़ित था। कबूतरी ने पिंजरे में से ही अपने पति से कहा-"यह व्यध आपके निवास स्थान पर आ कर सर्दी और भूख से पीड़ित है। आप इसकी यथोचित सेवा कीजिएगा।" कबूतर ने अग्नि जलाकर व्याध को गर्मी पहुंचाई । सचेत होने पर व्याध ने अपनी भूख की बात कही । कबूतर ने अपने शरीर को अग्नि में झोक दिया और बोलाआप मुझे ही ग्रहण करके मुझ पर कृपा कीजिए।" व्याध यह देखकर बड़ा दुखी हुआ। वह अपने पापी जीवन पर पश्चात्ताप करने लगा। व्याध ने निश्चय किया कि "अब मैं पाप से मुह मोड़कर स्त्री, पुरुष तथा अपने प्यारे प्राणों का भी परित्याग कर दूंगा । आज से मैं अपने शरीर को सम्पूर्ण भोगों से बंचित करके उसी प्रकार सुखा डालूगा जैसे जमीन में छोटा सा तालाब सूख जाता है । भूख और प्यास का कष्ट सहन करते हुए शरीर को इतना दुर्बल बना दूंगा कि सारे शरीर की फैली हुई नाड़ियां स्पष्ट दिखाई देंगी। मैं बारंबार अनेक प्रकार से उपवास व्रत करके परलोक सुधारने वाला पुण्य कर्म करूंगा" ऐसा कहकर धर्माचरण का ही निश्चय करके वह भयानक कर्म करनेवाला व्याध कठोर व्रत का आश्रय ले महाप्रस्थान के पथ पर चल दिया। 92
89. पाण्डवाश्च महात्मानो द्रौपदी च यशस्विनी।
कृतोपवासाः कौरव्यः प्रययुः प्रांगमुखास्ततः ।। 90. योगयुक्ता महात्मानस्त्यागधर्म मुपेयुषः ।
अभिजग्मुर्बहून् देशान् सरित: सागरांस्तथा। 91. तेषां तु गच्छतां शीघ्र सर्वेषां योगमिणाम् ।
याज्ञसेनी भ्रष्टयोगा निपपात महीतले ।। 92. एवमुक्त्वा विनिश्चित्य रौद्रकर्मा स लुब्धकः ।
महाप्रस्थानमाश्रित्य प्रययौ संशितव्रतः ॥ (शान्ति० 147/10)
खं. ३ अं. २-३
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