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डालते हैं ।
इस तरह विषय और किम्पाकफलों में अद्भुत सामञ्जस्य है । भगवान महाबीर के अनुसार दोनों में अन्तर है तो इतना ही कि किम्पाकफल सद्यः जीवन का ही अन्त करते हैं जबकि कामगुण अविच्छिन्न दुःखों को उत्पन्न करने वाले होते हैं ।
जैन उल्लेख में पहले विषफल और बाद में उसी प्रसंग में किम्पाकफल का उल्लेख है । इससे स्पष्ट है कि किम्पाकफल एक विष फल है । बौद्ध उल्लेखों में भी उक्त क्रम से ही विषवृक्ष और किम्पाकवृक्ष का उल्लेख है । इससे भी स्पष्ट है कि किम्पाकवृक्ष एक विषवृक्ष हैं ।
कुणाल जातक में स्त्रियों के विषय में पांच बातें कही गई हैं । उनमें से एक हैं - वे विषवृक्ष की तरह नित्य ( विषाक्त) फल उत्पन्न करने वाली होती हैं : 'विसarat far froफलिताओत्ति ।" बाद में गाथा में कहा है :
यथा सिखी नदीवाहो अनिलो कामचार वा नेरु व अविसेसा च विषरुक्खो व पंचधा नासयन्ति घरे भोगं रतनान्तकरित्थियो ।
अग्नि, नदी की धारा, जहाँ चाहे वहाँ जाने वाली वायु, हीन, मध्यम और उत्कृष्ट में अन्तर न करने वाले नेरु (मेरु) पर्वत और विषवृक्ष की तरह स्त्रियां पांच प्रकार से घर के भोग पदार्थ और धन का नाश करने वाली होती हैं ।
अट्ठकथाकार ने यहां विषरुक्खो का अर्थ किम्पाकरुक्खो किया है — "विसरुखोति • किम्पाकरुक्खो ।”
इस तरह विषवृक्ष और किम्पाकवृक्ष एकार्थक ठहरते हैं । बौद्ध उल्लेखों से किम्पाक एक विषवृक्ष विशेष सिद्ध होता है |
1. (क) अभिधान राजेन्द्र ( भा. 3 ) पृ. 526 : किपाकफलमिव मुहमहुराओ (ख) पाइअ - सद्द - महण्णवो पृ. 242. हुंति मुहिच्चिय महुरा विसया किंपागभूरुहफलं (पुष्पमाला पृ. 392)
(ग) अभिधान राजेन्द्र (भा. 3) पू. 526. किम्पाकफलमिवमुखे आदौ मधुरा महाकामरसोत्पादिकाः परं पश्चाद्विपाकदारुणाः ।
2.
जातक कथा 536
3. जातक कथा 271, 368; जातक कथा 54 एवं 85
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तुलसी प्रज्ञा
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