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ऐतिहासिक दृष्टि से विषयों की किपाक फल के साथ तुलना कम-से-कम भगवान् महावीर के युग जितनी प्राचीन है ।
2. ओवाइयं में भगवान महावीर के श्रमणों के वर्णन में लिखा है कि वे ऐसे थे, जो विषय सुख को किपाक फल के तुल्य मानकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए थे । तेणं कालेर्णं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तेवासी बहवे समणा भगवंतो - इच्छियभोगा सुहसंपलिया किंपागफलोवमं च मुणिय विसयसोक्खं...मुंडा भविता अगाराम्रो प्रणगारियं पव्वइया...|1
मृगापुत्र सुग्रीव नगर के बलभद्र राजा और उसकी अग्रमहिषी मृगा का पुत्र था । विषयों में उसकी रुचि न रही। संयम में उसकी रुचि उत्पन्न हुई । वह प्रत्रजित होने की सोचने लगा । तब मातापिता से अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए उसने उनसे कहा :
- माता-पिता ! मैं भोगों को भोग चुका हूं। ये भोग विषफल के तुल्य हैं । भोगने के पश्चात् इनका परिणाम कटुक होता है और ये निरन्तर दुःख देने वाले हैं ।
अम्मताय ! मए भोगा भुत्ता विसफलोवमा । पच्छा कडुयविवागा अणुबन्ध दुहावहा 11 जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुन्दरो । एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुन्दरो || 2
- जिस प्रकार किंपाक फलों के खाने का परिणाम सुन्दर नहीं होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता ।
आख्यानकार भगवान महावीर ने अपने पात्रों के मुख से भोगे हुए भोगों का परिणाम आत्मा के लिए वैसा ही घातक बतलाया है जैसा कि किंपाक फल खाने का परिणाम भौतिक देह के लिए होता है ।
आगे चलकर भगवान महावीर के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि जीवों के जो भी कायिक या मानसिक दुःख हैं वे काम-भोगों की प्रासक्ति से ही उत्पन्न हैं और इसी प्रसंग में उन्होंने कहा है :
1. ओवाइयं, समोसरण पयरणं, सूत्र 23
2. उत्तरज्झयणाणि 19/11, 17
खं. ३ अं. २-३
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