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व्यञ्जनस्यावग्रह ||18||
सूत्रार्थ - व्यंजन (अप्रकट रूप पदार्थ) का केवल अवग्रह ही होता है। न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ||19।।
सूत्रार्थ - चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता। विवेचन - प्रस्तुत तीनों सूत्रों में अवग्रह के दो भेद बताये है। 1. व्यंजनावग्रह और2. अर्थावग्रह
व्यंजनावग्रह - इन्द्रियों का पदार्थ के साथ संयोग तथा अव्यक्त अप्रकट पदार्थ का अवग्रह उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। जैसे शब्द का कान से टकराना। 'कुछ है' यह स्पष्ट निर्णय भी यहाँ नहीं होता। अर्थावग्रह - 'कुछ है' इस प्रकार का ज्ञान। व्यक्त प्रकट पदार्थ के अवग्रह को अर्थावग्रह कहते हैं। जैसे आवाज (शब्दों) को महसूस करना। व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह किस प्रकार होते हैं अथवा इन्द्रिय का विषय के साथ सम्पर्क होने पर ज्ञान का क्रम कितने धीरे-धीरे आगे बढ़ता है - इसे समझने के लिए दृष्टांत दिया जाता
प्रथम समय श्रवण
एक व्यक्ति गहरी नींद में सोया हुआ है। दूसरा व्यक्ति उसे जगाने
के लिए बार-बार आवाज देता है। वह सोया हुआ व्यक्ति पहली बार आवाज देने पर नहीं जागता। दूसरी बार आवाज देने पर भी नहीं जागता। इस प्रकार बार-बार आवाज देने पर जब उसके कान उस ध्वनि-पुद्गलों से पूरी तरह भर जाते हैं, तब वह अवबोध सूचक हूँ' यह शब्द करता है। ध्वनि-पुद्गलों से कान के आपूरित होने में असंख्य समय लगता है। इन्द्रिय और विषय का यह असंख्य समय वाला प्राथमिक संबंध व्यंजनावग्रह है। इसके पश्चात् व्यंजनावग्रह से कुछ ज्यादा व्यक्त किन्तु फिर भी अव्यक्त 'शब्द' का ग्रहण अर्थावग्रह है। अर्थावग्रह को अव्यक्त इसलिए कहा जाता है कि इसमें भी जाति, गुण, द्रव्य की कल्पना से रहित वस्तु का ग्रहण यानि बोध होता है।
असंख्यात समय पश्चात्
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