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द्वितीय अध्याय
जीव विचारणा
प्रथम अध्याय में सात तत्त्वों का नाम निर्देश किया गया है। आगे के नौ अध्यायों में क्रमशः उनके विशेष विस्तार रूप विवेचन किया जायेगा । इस अध्याय में जीव तत्त्व का स्वरूप, उसके भेद, प्रभेद, इन्द्रियाँ, मरण के समय गति, जन्म ग्रहण की योनियाँ, लिंग आदि का वर्णन किया जा रहा है। जीव के असाधारण भाव
औपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक पारिणामिकौ च ||1||
सूत्रार्थ : औपशमिक, क्षायिक, मिश्र ( क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक ये पांचों ही भाव जीव के स्वतत्त्व है।
विवेचन : इस सूत्र में बताये गये पांचों भाव जीव के अपने ही स्वतत्त्व है । भाव का अर्थ है, I पर्यायों की भिन्न भिन्न अवस्था । आत्मा अधिक से अधिक पांच भाव वाली हो सकती हैं। ये पांच भाव हैं 1. औपशमिक, 2. क्षायिक, 3. क्षायोपशमिक, 4. औदयिक और 5. पारिणामिक |
1. औपशमिक भाव : जीव का यह भाव उपशम से उत्पन्न होता है। जिस प्रकार मलिन जल में फिटकरी आदि पदार्थ डालने से उसकी मलिनता नीचे बैठ जाती है और पानी स्वच्छ दिखाई देने लगता उसी प्रकार मोहनीय कर्मों के उपशम (उदय न होने से ) जीव के परिणामों में जो विशुद्धि हो जाती है, वह औपशमिक भाव है।
2. क्षायिक भाव : क्षायिक भाव कर्मों के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है। कर्मों के क्षय से जीव के परिणाम अत्यन्त विशुद्ध और निर्मल होते हैं, जैसे सर्वथा मैल के निकल जाने पर जल नितान्त स्वच्छ हो जाता है।
3. क्षायोपशमिक भाव : यह भाव क्षय और उपशम से उत्पन्न होता है। जैसे कीचड़ को अलग करते वक्त कुछ कीचड़ के परमाणु पानी में आकर नीचे बैठ जाते तथा कुछ परमाणु तैरते रहते। ऐसी अवस्था में पानी आंशिक निर्मल तथा आंशिक मलिन रहता है, उसी तरह पारिणामों की निर्मलता से कर्मों के एक देश का क्षय और एक देश का उपशम होना क्षायोपशमिक भाव या मिश्रभाव है।
4. औदयिक भाव : द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के निमित्त से कर्मों का फल देना उदय है और उदय के निमित्तक भावों को औदयिक भाव कहते हैं।
5. पारिणामिक भाव : जो भाव कर्मों के उपशमादि की अपेक्षा न रखकर जीव द्रव्य के निज स्वरूप मात्र से होते हैं, उन्हे पारिणामिक भाव कहते हैं।
ये पांचों भाव ही आत्मा के स्वरूप हैं । संसारी या मुक्त कोई भी आत्मा हो, उसके सभी पर्याय इन पांच भावों में से किसी न किसी भाव वाले ही होंगे। पांचों भाव सभी जीवों में एक साथ होने
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