Book Title: Tattvartha Sutra Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 147
________________ हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के रूप में पुद्गल सूक्ष्म पर्यायरूप परिणमन कर रहे थे, वे अब पानी के रूप में स्थूल पर्यायरूप परिणमन करने लगे है। अत: आचुक्षष स्कन्ध निमित्त पाकर चाक्षुष बन सकता है, इसीका निर्देश इस सूत्र में किया है। स्कन्धादि की उत्पत्ति के कारण स्कन्ध 105473200 परमाणु चाक्षुष स्कन्ध भेद (अलग होना) भेद से ही भेद संघात से ही संघात (मिलना) भेद संघात (दोनों एक साथ) द्रव्य (सत्) का विवेचन उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत् ||29|| सूत्रार्थ : जो उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिरता) से युक्त है, वह सत् है। सत् का अर्थ है विद्यमानता से युक्त सत्ता, अस्तित्व, अवस्थिति आदि। यहाँ सत् का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव बतलाया है। नवीन अवस्थाओं की उत्पत्ति और पुरानी अवस्थाओं का विनाश होते रहने पर भी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करना सत् है। जैसे सोने के कुण्डल तुडवाकर हार बनवाया जाना। कुण्डल रूप पर्याय का विनाश और हार रूप पर्याय का उत्पाद होते हुए भी सोने की अपेक्षा सोना स्थिर है, ध्रुव है। इस प्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की प्रक्रिया, प्रत्येक वस्तु अथवा द्रव्य में निरन्तर चलती ही हैं और वही सत् है। तद्भावाव्ययं नित्यम् ||3011 सूत्रार्थ : जो अपने भाव से (जाति से) च्युत न हो वहीं नित्य है। विवेचन : यह वही है, जो पहले था इस प्रकार की अनुभूति अथवा प्रतिबोध का होना तद्भाव है। साधारण शब्द में इसे स्वभाव कहते है। तद्भाव या स्वभाव सदा ध्रुव रहता है, उसका कभी नाश नहीं होता, स्थिर है सदाकाल रहने वाला है। पर्यायों के उत्पत्ति विनाश होते रहने पर भी जो द्रव्य को उसके अपने निजी रूप में बनाये रखता है, वह तद्भाव है, वस्तु की ध्रुवता है और इस कारण सत्ता अपने स्वभाव से च्युत नहीं होता है। Por Nersonavatelefony Bw.janelibrary.org

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