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अनादि- रादिमांश्च ||42||
सूत्रार्थ : परिणाम के दो प्रकार होते हैं - अनादि और आदिमान।
रूपिष्वादिमान् ||431
परिणाम के भेद तथा विभाग
सूत्रार्थ : रूपी द्रव्यों में आदिमान् परिणाम होता है।
योगोपयोगी जीवेषु ||44 |
सूत्रार्थ : जीव में योग और उपयोग - ये दो परिणाम आदिमान् होते हैं।
विवेचन : वह परिणाम आदिमान और अनादिमान ये दो प्रकार का है। अनादि का अभिप्राय है - सहज, स्वाभाविक रूप से सदा से होने वाले परिणाम । ऐसा परिणाम धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में होता हैं।
जीव और पुद्गल में अनादि और आदिमान दोनों प्रकार के परिणाम होते हैं।
में अस्तित्व, वस्तुत्व आदि रूप परिणाम तो इन दोनों द्रव्यों में अनादि है । किन्तु पुद्गल स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध के उत्तर भेदों की अपेक्षा आदिमान परिणाम है और योग तथा उपयोग की अपेक्षा जीव में भी आदिमान परिणाम हैं क्योंकि ये सहज स्वाभाविक नहीं है इसका परिणमन अनुभव में आता है।
परिणाम (पर्याय)
( स्वरूप में स्थित रहते हुए उत्पन्न तथा नष्ट होना)
अनादि
( प्रवाह अपेक्षा
सहज स्वभाविक)
धर्मा, अधर्म और आकाश अस्तिव वस्तुत्व आदि
आदिमान (सादि)
( प्रति समय नया नया )
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पुद्गल में-वर्ण, रस, गंध, स्पर्श जीव में योग और उपयोग
|| पंचम अध्याय समाप्त ||