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किसी मुनि के पास वैक्रिय एवं आहारक दोनों शरीर होने से पांच भी हो सकते हैं, किन्तु यहाँ उपयोग की अपेक्षा चार बताए गए हैं। जब वैक्रिय का उपयोग होगा, तब आहारक का नहीं और जब आहारक का होगा, तब वैक्रिय का नहीं ।
एक साथ एक जीव के कितने शरीर
तीन
दो
तैजस और कार्मण
मोडवाली विग्रह गति में स्थित जीव
तैजस,
कार्मण,
औदारिक
मनुष्य और तिर्यंच
निरूपभोग-मन्त्यम् ||45||
तैजस,
कार्मण,
वैक्रिय
देव और नारकी
तैजस,
कार्मण,
औदारिक,
वैक्रिय
वैक्रिय लब्धि धारी मुनि
कार्मण शरीर की निरुपभोगिता
So5.3%
चार
तैजस, कार्मण,
औदारिक,
आहारक
छठे गुणस्थानक आहारक ऋद्धिधारी मुनि अर्थात् चौदह पूर्वधारी मुनि
सूत्रार्थ : अंतिम अर्थात् कार्मण शरीर उपभोग रहित होता है।
विवेचन : इस सूत्र में कार्मण शरीर को निरूपभोग बताया है। अर्थात् कार्मण शरीर में उपभोग (सुख दुखादि के अनुभव) नहीं होता । सामान्यतः जीव इन्द्रियों के शुभाशुभ या इष्ट-अनिष्ट विषयों को ग्रहण कर सुख दुखादि का अनुभव कर, अनेक प्रकार की क्रिया करते हुए उनका उपभोग करता हैं। कार्मण शरीर अकेला इनका उपभोग नहीं कर सकता, उसे अन्य शरीरों की सहायता आवश्यक होती है।
तैजस शरीर पचन - पाचन आदि करता है तथा श्राप, वरदान आदि भी इसका कार्य है। औदारिक शरीर के द्वारा सुख-दुख आदि का अनुभव करते हैं, देव और नारकी वैक्रिय शरीर से सुख-दुख आदि का अनुभव करते हैं। चौदह पूर्वधारी आहारक शरीर से अपना शरीर सिद्ध करते हैं। अतः यह सभी शरीर सोपभोग हैं।