Book Title: Tattvartha Sutra Part 01
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 128
________________ द्रव्यों के प्रदेश असंख्येयाः प्रदेशा धर्मा-ऽधर्मयोः ।।7।। सूत्रार्थ : धर्म और अधर्म-द्रव्यों के असंख्यात प्रदेश हैं। जीवस्य च ||8|| सूत्रार्थ : एक-एक जीव द्रव्य के भी असंख्यात प्रदेश हैं। आकाशस्या-ऽनन्ताः ।।9।। सूत्रार्थ : आकाश के अनंत प्रदेश हैं। संख्येया-sसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ||10|| सूत्रार्थ : पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात तथा अनंत प्रदेश भी हैं। नाणोः ||11|| सूत्रार्थ : अणु (परमाणु) के प्रदेश नहीं होते। विवेचन : प्रस्तुत सूत्र 7 से 11 तक में द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या बताई गई हैं। प्रदेश अर्थात् एक ऐसा सूक्ष्म अंश जिसके दूसरे अंश की कल्पना भी नहीं की जा सकती या जिसका आगे कोई खंड या टुकड़ा नहीं हो सकता। ऐसे अविभाज्य सूक्ष्म को निरंश-अंश (Partless part) भी कहते है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों द्रव्यों के प्रदेश असंख्यात है और दोनों द्रव्य ऐसे अखंड स्कन्ध रूप में है जिनके एक प्रदेश भी स्कन्ध से अलग नहीं किये जा सकते है। वे असंख्यात अविभाज्य सूक्ष्म अंश भी केवल ज्ञान से ही ज्ञात किये जा सकते है। जीव द्रव्य अनंत है। एक जीव के प्रदेश असंख्यात हैं। धर्म, अधर्म और एक जीव के प्रदेशो की संख्या समान हैं। इनमें से धर्म और अधर्म द्रव्य निष्क्रिय है और संपूर्ण लोकाकाश में फैले हुए हैं। जीव असंख्यात प्रदेश होने पर भी संकोच विस्तार शील होने से कर्म के अनुसार प्राप्त छोटे या बडे शरीर में तत्प्रमाण होकर रहता है। आकाश द्रव्य अनंतप्रदेश वाला हैं। लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात हैं और अलोकाकाश के प्रदेश अनंत हैं। इसका कारण यह है कि लोकाकाश की अपेक्षा अलोकाकाश अनंत गुणा के एकएक प्रदेश पर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का एक-एक प्रदेश अवस्थित है तथा जिस समय केवली भगवान जब केवली-समुद्घात करते है और अपनी आत्मा को लोक व्यापी बनाते है, उस समय आत्मा का एक-एक प्रदेश भी धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के एकएक प्रदेश पर अवस्थित हो जाता है। यह स्थिति तभी सम्भव है जब इन चारों द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या समान हो।

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