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जीवों का संज्ञी और असंज्ञी यह भेद पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाया जाता है। अन्य एकेन्द्रिय से लेकर चउरिन्द्रिय तक के जीव तो असंज्ञी ही होते हैं।
विग्रहगति सम्बन्धी विचारणा विग्रहगतौ कर्म योगः ||26।।
सूत्रार्थ : विग्रहगति में कार्मण योग रहता है।
विवेचन : विग्रह का अर्थ शरीर या देह है। विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है । एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिए गमन करना विग्रह गति है।
_ विग्रहगति में जीव के कार्मणकाययोग रहता है। क्योंकि मनुष्य और तिर्यंच की अपेक्षा औदारिक शरीर, देव नारकियों की अपेक्षा वैक्रिय शरीर आयु पूरी होते ही छूट जाता है। यहाँ कार्मण शरीर और कार्मणयोग का भेद समझ ले।
कार्मण शरीर : कर्मों के समूह को कार्मण शरीर कहते हैं। योग : आत्म प्रदेशों के परिस्पन्दन।
कार्मण शरीर तो जीव के साथ संलग्न रहता ही है, वह अपनी योग शक्ति से कार्मण शरीर को कार्मण काययोग में परिणत कर लेता है क्योंकि एक स्थान से दूसरे स्थान को गमन करने के लिए योग शक्ति अपेक्षित होती है।
अनुश्रेणि गति: ||27||
सूत्रार्थ : गति, श्रेणि के अनुसार होती है।
विवेचन : आकाश में जीव और पुद्गल की गति, श्रेणि (सरल रेख) के अनुसार होती है। लोक के मध्य से लेकर ऊपर नीचे और तिरछे आकाश के प्रदेश क्रमश: श्रेणि बद्ध अर्थात सीधे होते हैं। मरण के समय जब जीव एक भव को छोड़कर दूसरे भव के लिए गमन करते हैं और मुक्त जीव जब उर्ध्व गमन करते हैं तब उनकी गति सीधी ही होती हैं। जब कोई उर्ध्वलोक से अधोलोक व अधोलोक से ऊर्ध्वलोक या तिर्यंग लोक से अधोलोक या ऊर्ध्वलोक आता जाता है तब उस अवस्था में उसकी गति अनुश्रेणी अर्थात् सीधी होती है।
अविग्रहा जीवस्य ||28||
सूत्रार्थ : मुक्त जीव की गति विग्रहरहित होती है।
विवेचन : अविग्रहा अर्थात् बिना मोड़ वाली गति। गति दो प्रकार की होती हैं - 1. ऋजु अर्थात् सरल या सीधी 2. वक्र अर्थात् कुटिल या मोड़ वाली। जिस स्थान पर सिद्ध जीव अपना शरीर