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बहु-बहुविध-क्षिप्रा-ऽनिश्रिता-ऽसंदिग्ध-ध्रुवाणां सेतराणाम् || 16।।
सूत्रार्थ - बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव - ये छ: तथा (सेतराणामप्रतिपक्ष सहित) अर्थात् इनसे विपरीत, एक, एकविध, अक्षिप्र, निश्रित, संदिग्ध और अध्रुव - ये छ: इस तरह कुल बारह प्रकार से अवग्रह, ईहा आदि रूप मतिज्ञान होता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अवग्रह ईह आदि के उपभेदों का वर्णन किया गया है। 1. बहु - दो या दो से अधिक पदार्थ का ज्ञान। 2. अल्प - एक वस्तु को ग्रहण करने वाला ज्ञान। 3. बहुविध - अनेक जातियों का अवग्रहादि। जैसे हापुस, लंगडा, केसरी आम। 4. एकविध - एक जाति का अवग्रहादि। जैसे एक जाति का आम, लंगडा
बहु - अल्प का तात्पर्य वस्तु की संख्या से है और बहुविध, एक विध का तात्पर्य प्रकार या जाति से है।
5. क्षिप्र - क्षयोपशम की निर्मलता से शब्दादि का शीघ्र ग्रहण करना। 6. अक्षिप्र - शब्द आदि को विलम्ब अथवा देरी से ग्रहण करना। 7. अनिश्रित - वस्तु को बिना चिन्हों के ही जानने की क्षमता रखना। 8. निश्रित - किसी पदार्थ को उनके चिन्हों से जानना। 9. असंदिग्ध - पदार्थ का संशय रहित ज्ञान। 10. संदिग्ध - वस्तु को जानने में संशय रह जाना। असंदिग्ध और संदिग्ध को अनिश्चित और निश्चित भी कहा जाता है।
11. ध्रुव - जो मतिज्ञान एक बार ग्रहण किये हुए अर्थ को सदा के लिए स्मृति में धारण किये रहे।
12. अध्रुव - जो ज्ञान सदा काल स्मरण न रहे, विस्मृत हो जाए।
अर्थस्य ||17||
सूत्रार्थ - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा - इन चारों से अर्थ (वस्तु का प्रकट रूप) का ग्रहण होता है।
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