Book Title: Sutrkritang Sutram Dwitiya Shrutskandh
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust

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Page 258
________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः 2 // 724 // श्रुतस्कन्धः 2 षष्ठमध्ययन आईक्रीयम्, सूत्रम् 11-14 (746-749) आद्र कस्योत्तरः इमं वयं तु तुम पाउकुव्वं, पावाइणो गरिहसि सव्व एव / पावाइणो पुढो किट्टयंता, सयं सयं दिट्टि करेंति पाउ / / सूत्रम् 11 // ( // 746 // ) ते अन्नमन्नस्स उगरहमाणा, अक्खंति भो समणा माहणा य / सतो य अत्थी असतो य णत्थी, गरहामो दिह्रिण गरहामो किंचि ॥सूत्रम् 12 // (1747 // ) ण किंचि रूवेणऽभिधारयामो, सदिट्ठिमग्गं तु करेमु पाउं / मग्गे इमे किट्टिएँ आरिएहिं, अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजू // सूत्रम् 13 // ( // 748 // ) उड़े अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। भूयाहिसंकाभि दुगुंछमाणा, णो गरहती बुसिमं किंचि लोए। सूत्रम् 14 / / ( // 749 // ) इमां पूर्वोक्तां वाचं तुशब्दो विशेषणार्थः त्वं प्रादुष्कुर्वन् प्रकाशयन् सर्वानपि प्रावादुकान् गर्हसि जुगुप्ससे, यस्मात्सर्वेऽपि तीर्थिका बीजोदकादिभोजिनोऽपि संसारोच्छित्तये प्रवर्त्तन्ते, ते तु भवता नाभ्युपगम्यन्ते, ते तु प्रावादुकाः पृथक् पृथक् स्वीयां स्वीयां दृष्टिं- प्रत्येकं स्वदर्शनं कीर्तयन्तः 'प्रादुष्कुर्वन्ति' प्रकाशयन्ति / यदिवा श्लोकपश्चार्द्धमाककुमार आह- सर्वेऽपि प्रावादुका यथावस्थितं स्वदर्शनं प्रादुष्कुर्वन्ति तत्प्रमाण्याच्च वयमपि स्वदर्शनाविर्भावनं कुर्मः, तथाहि- अप्रासुकेन बीजोदकादिपरिभोगेन कर्मबन्ध एव केवलं न संसारोच्छेद इतीदमस्मदीयं दर्शनम्, एवं व्यवस्थिते काऽत्र परनिन्दा को वाऽऽत्मोत्कर्ष इति // 11 // 746 // किंच-तेअण्णमण्णस्से त्यादि, ते प्रावादुका: अन्योऽन्यस्य परस्परेण तु स्वदर्शनप्रतिष्ठाशया परदर्शनं गर्हमाणाः स्वदर्शनगुणानाचक्षते, तुशब्दात्परस्परतो व्याहतमनुष्ठानं चानुतिष्ठन्ति, ते च श्रमणा निर्ग्रन्थादयो ब्राह्मणा // 724 //

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