Book Title: Sutrkritang Sutram Dwitiya Shrutskandh
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
View full book text ________________ श्रुतस्कन्धः श्रीसूत्रकृतात नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः 2 // 742 // षष्ठमध्ययन आर्द्रक्रीयम्, सूत्रम् 43-46 (778-781) ब्राह्मणानां उपासना मनुते शक्रेऽपि नैवादरो, वित्तोपार्जनरक्षणव्ययकृताः प्राप्नोति नो वेदनाः। संसारान्तरवर्त्यपीह लभते शं मुक्तवन्निर्भयः, संतोषात्पुरुषोऽमृतत्वमचिराद्यायात्सुरेन्द्रार्चितः॥१॥ इत्यादि // 42 // 777 // तदेवमाककुमारं निराकृतगोशालकाजीवकबौद्धमतमभिसमीक्ष्य साम्प्रतं द्विजातयः प्रोचुः, तद्यथा- भो आर्द्रककुमार! शोभनमकारि भवता यदेते वेदबाह्ये द्वे अपि मते निरस्ते, तत्साम्प्रतमेतदप्याहतं वेदबाह्यमेवातस्तदपिनाश्रयणार्ह भवद्विधानाम्, तथाहि-भवान् क्षत्रियवरः, क्षत्रियाणांच सर्ववर्णोत्तमा ब्राह्मणा एवोपास्या न शूद्राः, अतो यागादिविधिना ब्राह्मणसेवैव युक्तिमतीत्येतत्प्रतिपादनायाह सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए माहणाणं / ते पुन्नखंधे सुमहऽञ्जणित्ता, भवंति देवा इति वेयवाओ॥सूत्रम् 43 // ( // 778 // ) सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए कुलालयाणं / से गच्छति लोलुवसंपगाढे, तिव्वाभितावी णरगाभिसेवी॥ सूत्रम् 44 // ( // 779 // ) दयावरं धम्मं दुगुंछमाणा, वहावहं धम्मं पसंसमाणा। एगंपिजे भोययती असील, णिवो णिसं जाति कुओ सुरेहिं ? ॥सूत्रम् 45 // ( // 780 // ) दुहओविधम्ममि समुट्ठियामो, अस्सिं सुट्ठिच्चा तह एसकालं। आयारसीले बुइएह नाणी, ण संपरायंमि विसेसमत्थि॥सूत्रम् 46 // ( // 781 // ) तुशब्दो विशेषणार्थः, षट्कर्माभिरता वेदाध्यापकाः शौचाचारपरतया नित्यं स्नायिनो ब्रह्मचारिणः स्नातकास्तेषां सहस्रद्वयं नित्यं ये भोजयेयुः कामिकाहारेण ते समुपार्जितपुण्यस्कन्धाः सन्तो देवाः स्वर्गनिवासिनो भवन्तीत्येवंभूतो वेदवाद इति // 43 // // 742 //
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