Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ तब तक अपूर्ण ही माना जायेगा, जब तक प्राकृत-साहित्य में सन्निहित ऐतिहासिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिच्छबियों का, देश और काल के आधार पर, समानान्तर अनुशीलन नहीं किया जायेगा। सहज जन-जीवन और सरल जनभाषाओं की विभिन्न विच्छित्तिपूर्ण झलकियों के अतिरिक्त प्राकृत-साहित्य में भारतीय दर्शन, आचार, नीति, धर्म और संस्कृति की सुदृढ़ एवं पूर्ण विकसित परम्परा के दर्शन होते हैं। प्राकृत-साहित्य में साहित्य की विभिन्न विधाएँ- जैसे काव्य, कथा, नाटक, चरितकाव्य, चम्पूकाव्य, दूतकाव्य, छन्द, अलंकार, वार्ता, आख्यान, दृष्टान्त, उदाहरण, संवाद, सुभाषित, प्रश्नोत्तर, समस्यापूर्ति, प्रहेलिका प्रभृति पायी जाती है। जन-जीवन की विभिन्न धारणाएँ, जीवन-मरण, रहन-सहन, आचार-विचार आदि के सम्बन्ध में अनेक पुरातन बातों की जानकारी के लिए प्राकृत-साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन अनिवार्य है। आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म-साहित्य का अध्ययन वैदिक उपनिषदों के अध्ययन में पर्याप्त सहायक है। कुन्दकुन्दाचार्य के प्रसिद्धतम ग्रन्थ समयसार के अध्ययन के बिना अध्यात्म और वेदान्तशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन अपूर्ण ही माना जायेगा। भारतीय चिन्तन का सर्वांगपूर्ण ज्ञान, जो संस्कृत वाङ्मय में निहित है, प्राकृत-साहित्य के ज्ञान के बिना एकपक्षीय ही रह जायेगा। अनेक कारणों से प्राकृत-साहित्य के निर्माण की प्रक्रिया क्षीण हो गयी थी, उसे पुनरुज्जीवित करने का प्रयास वर्तमान में भी किया जा रहा है-यह प्रसन्नता का विषय है। इस प्रयास में आचार्य श्री सुनीलसागर जी महाराज का विशिष्ट योगदान है। उनके द्वारा रचित प्रस्तुत कृति प्राकृत-साहित्य की बहुमूल्य धरोहर है। इस कृति का मैंने आद्योपान्त निरीक्षण किया है। मेरी दृष्टि में यह कृति इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इसे पढ़ते समय ऐसा लगता है कि हम जैसे आचार्य कुन्दकुन्द के अष्टप्राभृत व रयणसार को पढ़ रहे हों। यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की भाषा शौरसेनी है किन्तु अष्टप्राभृत व रयणसार की शौरसेनी में आर्ष प्राकृत की बहुलता है। यही कारण है कि उक्त ग्रन्थों में उत्तरवर्ती प्राकृत व्याकरणों के नियमों का सर्वथा पालन नहीं हुआ है तथा देशी शब्दों का प्रयोग भी सुविधा के अनुरूप किया गया है। संस्कृत साहित्य की परम्परा में भी वैदिक संस्कृत की स्थिति भी कुछ-कुछ ऐसी ही है। इस भाषा के कुछ नियम कषायप्राभृत आदि में प्राप्त भी होते हैं। आचार्य हेमचन्द्र तथा वर्तमान के कुछ विद्वानों ने उस भाषा को आर्ष प्राकृत के नाम से संकेतित किया है। निश्चय ही आधुनिक प्राकृत-अध्येता छात्र आर्ष प्राकृत के उदाहरण के रूप में इसका अध्ययन करेंगे, तो वे अधिक लाभान्वित होंगे। प्रो. डॉ. दामोदर शास्त्री लाडनूं आठ

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