Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ सम्पादकीय प्राकृत-साहित्य, सहस्राधिक वर्षों, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से भारतीय जनजीवन का प्रतिनिधि - साहित्य रहा है। इसमें तत्कालीन सामाजिक जीवन के अनेक आरोह अवरोह प्रतिबिम्बित हुए हैं। जहाँ तक भारतीय इतिहास और संस्कृति का प्रश्न है, प्राकृत-साहित्य इन दोनों का निर्माता रहा है। यद्यपि प्राकृत का अधिकांश साहित्य अभी तक अध्ययन-अनुचिन्तन की प्रतीक्षा में है और उसके तथ्यों का तात्विक उपयोग इतिहास - रचना में नहीं किया जा सका है तथापि वर्तमान में प्राकृत का जो साहित्य उपलब्ध हो पाया है, उसका फलक संस्कृत - साहित्य के समानान्तर ही बड़ा विशाल है। रूपक का सहारा लेकर हम ऐसा कहें कि प्राकृत और संस्कृत साहित्य दोनों ऐसे सदानीर नद हैं, जिनकी निर्मल धाराएँ अनवरत एक-दूसरे में मिलती रही हैं। दोनों ही परस्पर अविच्छिन्न भाव से सम्बद्ध रही हैं। विद्या और विषय की दृष्टि से प्राकृत साहित्य की महत्ता सर्व स्वीकृत है। भारतीय लोकसंस्कृति के सांगोपांग अध्ययन या उसके उत्कृष्ट रमणीय रूप-दर्शन का अद्वितीय माध्यम प्राकृत-साहित्य ही है । प्राकृत भाषा में ग्रन्थ-रचना ईसवी पूर्व छठीं शती से प्रायः वर्तमान काल तक न्यूनाधिक रूप से निरन्तर होती चली आ रही है । यद्यपि, प्राकृतोत्तर काल में हिन्दी एवं तत्सहवर्त्तिनी विभिन्न आधुनिक भाषाओं और उपभाषाओं का युग आरम्भ हो जाने से संस्कृत और प्राकृत में ग्रन्थ-रचना की परिपाटी स्वभावतः मन्दप्रवाह दृष्टिगोचर होती है, किन्तु संस्कृत और प्राकृत में रचना की परम्परा अद्यावधि अविकृत और अक्षुण्ण है । और यह प्रकट तथ्य है कि संस्कृत और प्राकृत दोनों एक-दूसरे के अस्तित्त्व को संकेतित करती हैं। इसलिए दोनों में अविनाभावी सम्बन्ध रहा है। प्राकृत-साहित्य पिछले ढाई हजार वर्षों की भारतीय विचारधारा का संवहन करता है। इसमें न केवल उच्चतर साहित्य और संस्कृति का इतिहास सुरक्षित है, अपितु मगध से पश्चिमोत्तर भारत ( दरद-प्रदेश) एवं हिमालय से श्रीलंका (सिंहलद्वीप) तक के विशाल भूपृष्ठ पर फैली तत्कालीन लोकभाषा का भास्वर रूप भी संरक्षित है। प्राकृत-साहित्य का बहुलांश यद्यपि जैन कवियों और लेखकों द्वारा रचा गया है, तथापि इसमें तद्युगीन जनजीवन का जैसा व्यापक एवं प्राणवान् प्रतिबिम्बन हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। न केवल भारतीय पुरातत्त्वेतिहास एवं भाषाविज्ञान अपितु समस्त संस्कृत वाङ्मय का अध्ययन एवं मूल्यांकन सात

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