Book Title: Sunil Prakrit Samagra Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 7
________________ अपनी बात आदि पुरुष, प्रथम तीर्थंकर, विश्व-धर्म साम्राज्य नायक भगवान ऋषभदेव ने राज्यावस्था में सम्पूर्ण भारत देश को बावन जनपदों में सुनियोजित कर जनता की सुख-समृद्धि के लिए षट्कर्मों का प्रतिपादन किया था। असि, मसि, कृषि, शिल्पकला, विद्या और वाणिज्य के माध्यम से जनता गृहस्थ-जीवन में सुस्थिर हुई। उन्होंने अपने पुत्रों को विविध शिक्षाएँ जनता में प्रसार हेतु प्रदान की। उन्होंने नारी-शिक्षा का सूत्रपात करते हुए ब्राह्मी को अक्षर विद्या का ज्ञान कराया। कालान्तर में वही लिपि ब्राह्मीलिपि कहलायी। द्वितीय पुत्री सुन्दरी को अंक विद्या का ज्ञान कराते हुए, उन्होंने शून्य का आविष्कार किया। वाम हस्त से उन्होंने सुन्दरी को अंक विद्या का ज्ञान कराया था, जिस कारण आज भी गणित को बायीं तरफ से पढ़ा जाता है। पुरा-काल की जनभाषा 'प्राकृत' विविध क्षेत्रों में प्रचलित रहने के कारण विविध रूपों में रही है और इसी कारण उसके विविध नाम हुए हैं। इन भाषाओं में 'शौरसेनी प्राकृत' अत्यन्त व्यापक और प्राचीन है। संस्कृत की जन्मदात्री होने का सौभाग्य प्राप्त करने वाली प्राकृत तत्कालीन संस्कृत नाटकों में भी प्रभावक रूप में रही है। समय बदलते भाषाओं की लोकप्रियता बदलती रही, फिर भी प्राकृत के शब्द किसी न किसी रूप में बने ही रहे। 'प्राकृत' प्राचीनतम भारतीय संस्कृति तथा किन्हीं अर्थों में जैनों की मूल भाषा है। प्राकृत को जाने बिना किसी भी भाषा का ज्ञान सम्पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता है। यूँ तो प्राकृत का सामान्य ज्ञान सभी को होना चाहिए, किन्तु जिनके मन में आदिब्रह्मा ऋषभदेव, नेमिनाथ, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि महापुरुषों की भाषा जानने की उत्कट अभिलाषा है, उन्हें प्राकृत के अन्तस्तल तक उतरना ही चाहिए। इसके अलावा जो प्राचीनतम साहित्य का आनन्द लेना चाहते हैं, उन्हें भी भाषाओं की प्रकृति का ज्ञान होना आवश्यक है। मुनिकुंजर आचार्यश्री आदिसागरजी (अंकलीकर) के तृतीय पट्टाधीश तपस्वी सम्राट आचार्यश्री सन्मतिसागरजी गुरुदेव के आशीर्वाद से प्रस्तुत कृति इस रूप में आ पाई है। -आचार्य सुनीलसागर aPage Navigation
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