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आचाराग को सूक्तियां
पांच ७ मेघावी साधक को आत्मपरिज्ञान के द्वारा यह निश्चय करना चाहिए कि
-~~"मैंने पूर्वजीवन मे प्रमादवग जो कुछ भूल की है, वे अब कभी नही
करूंगा।" ८ जो अपने अन्दर (अपने मुग दुस की अनुभूति) को जानता है, वह वाहर (दूमरी के सुग दुख की अनुभूति) को भी जानता है ।
जो वाहर को जानता है, वह अन्दर को भी जानता है ।
इस प्रकार दोनो को, स्व और पर को एक तुला पर रखना चाहिए । है जो काम-गुण है, इन्द्रियो का शब्दादि विषय है, वह आवर्त =मसार
चक्र है।
___ और जो आवर्त है, वह कामगुण है । १० विपयातुर मनुष्य ही दूसरे प्राणियो गो परिताप देने हैं ।
११ 'इसने मुझे मारा'-कुछ लोग इस विचार मे हिमा करते है ।
'यह मुझे मारता है'-कुछ लोग इस विचार में हिंसा करते है । 'यह मुझे मारेगा'-कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते है।
१२ वृद्ध हो जाने पर मनुप्य न हाम-परिहाम के योग्य रहता है, न क्रीडा के,
न रति के और न शृगार के योग्य ही ।
१३ अनन्त जीवन-प्रवाह मे, मानव जीवन को वीच का एक सुअवसर जान
कर, धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे ।
१४ आयु और यौवन प्रतिक्षण बीता जा रहा है ।
१५ हे आत्मविद् साधक | जो बीत गया मो बीत गया । शेप रहे जीवन को
ही लक्ष्य मे रखते हुए प्राप्त अवसर को परख । समय का मूत्य समझ । १६. अरति (सयम के प्रति अरुचि) से मुक्त रहने वाला मेधावी माधक क्षण
भर मे ही बन्धनमुक्त हो सकता है ।