Book Title: Sthanang Sutram Part 02
Author(s): Vijaychandrasguptasuri
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
View full book text ________________ श्रीस्थानाङ्गं श्रीअभय० वृत्तियुतम् नवममध नवस्थानम्, सूत्रम् 693 श्रेणिकचरित्रादि भाग-२ // 817 // यागं पाउणित्ता तेरसहिं पक्खेहिं ऊणगाई तीसं वासाई केवलिपरियागं पाउणित्ता बायालीसं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता बावत्तरि वासाइंसव्वाउयं पालइत्ता सिज्झिस्संजाव सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सं एवामेव महापउमेवि अरहा तीसं वासाई अगारवासमझेवसित्ताजाव पव्विहिती दुवालस संवच्छराईजाव बावत्तरिवासाईसव्वाउयंपालइत्ता सिज्झिहिती जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिती-'जंसीलसमायारो अरहा तित्थंकरो महावीरो / तस्सीलसमायारो होति उ अरहा महापउमे॥१॥॥सूत्रम् 693 // (श्री महापद्मचरित्रं संपूर्णमिति) सुगमं चैतद्, नवरमेषोऽनन्तरोक्त आर्या इति श्रमणामन्त्रणं भिंभि त्ति ढक्का सा सारो यस्य स तथा, किल तेन कुमारत्वे प्रदीपनके जयढक्का गेहानिष्काशिता ततः पित्रा भिंभिसार उक्त इति, सीमंतके नरकेन्द्रके प्रथमप्रस्तटवर्तिनिचतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिषु नरकेषु मध्ये नारकत्वेनोत्पत्स्यते, कालः स्वरूपेण कालावभासः-काल एवावभासते पश्यतां यावत्करणाद् गंभीरलोमहरिसे गम्भीरो महान् लोमहर्षो-भयविकारो यस्य स तथा, भीमो विकरालः उत्तासणओ उद्वेगजनकः, परमकिण्हे वन्नेणं ति प्रतीतम्, सच तत्र नरके वेदनां वेदयिष्यति, उज्ज्वलां-विपक्षस्य लेशेनाप्यकलङ्कितांयावत्करणात् त्रीणि मनोवाकायबलानि उपरिमध्यमाधस्तनकायविभागान् वा तुलयति-जयतीति त्रितुला ताम्, क्वचिद्विपुलामिति पाठः। तत्र विपुलाशरीरव्यापिनी ताम्, तथा प्रगाढां- प्रकर्षवतीं कटुकां- कटुकरसोत्पादितां कर्कशां- कर्कशस्पर्शसम्पादितामथवा कटुकद्रव्यमिव कटुकामनिष्टाम्, एवं कर्कशामपि, चण्डां-वेगवतीं झटित्येव मूर्धोत्पादिकाम्, वेदना हि द्विविधा- सुखा दुःखा चेति, सुखाव्यवच्छेदार्थ दुःखामित्याह, दुर्गा-पर्वतादिदुर्गमिव कथमपि लयितुमशक्यां दिव्यां- देवनिर्मिताम्, किंबहुना?-दुरधिसहां-सोढुमशक्यामिति, इहैव जम्बूद्वीपे, नासङ्खयेयतमे, पुमत्ताएत्ति पुंस्तया पच्चायाहिइत्ति प्रत्याजनिष्यते, // 817
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