Book Title: Sthanang Sutra Dipika Vrutti
Author(s): Vimalharsh Gani, Mitranandvijay
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 334
________________ सु०३०२। श्रीस्थानाङ्ग सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥३२४॥ ग्रन्थेनाह-कण्ठचश्चाय ग्रन्थः, नवरं चित्रकूटादीनां वक्षारपर्वतानां पोडशानामिदं स्वरूप-"पंचसए बाणउए, सोलस य सहस्स दो कलाओ य । विजयाश्वकखार २तरनईण३तह वणमुहायामोठ॥१॥"त्ति, तथा-"जत्तो वासहरगिरी, तत्तो जोयणसयं समवगाढा । चत्तारि जोयणसए, उबिद्धा सव्वरयणमया ॥१॥ जत्तो पुण सलिलाओ, तत्तो पंचसयगाउउब्बेहो । पंचेव जोयणसए, उविद्धा आसखंधनिभा ॥२॥"त्ति, विष्कम्भश्चैषामेव -"विजयाण विक्खंभो, बावीस| सयाई तेरसहियाई । पंचसए वक्खारा, पणुवीससयं च सलिलाओ ॥१॥"त्ति पद्यते-गम्यते इति पदसङ्ख्यास्थानं तच्चानेकधेति जघन्य-सर्वहीन पद जघन्यपदं, तत्र विचार्य सत्यवश्यंभावेन चत्वारोऽर्हदादय इति ॥ भूम्यां भद्रशालवन मेखलायुगले च नन्दनसौमनसे शिखरे पण्डकवनमिति, अत्र गाथा:-"बावीससहस्साई पुव्वावरमेरुभहसालवण । अइढाइज्जसयाओ, दाहिणपासे य उत्तरओ ॥१॥ पंचेव जोयणसए, उड्ढ गंतूण पंचसयपिहुल । नंदणवण सुमेरु, परिकिखवित्ता ठिय रम्म ॥२॥ बासद्विसहस्साई, पंचेव सयाई नंदणवणाओ। उड्ढ गंतूण वण, सोमणस नंदणसरिच्छ ॥३॥ सोमणसाओ तीस, छच्च सहस्से बिलग्गिऊण गिरिं। विमलजलकुंडगहण, हवइ वण पंडग सिहरे ॥४॥ चत्तारि जोयणसया, चउणउया चक्कवाली रुंद । इगतीस जोयणसया, बावट्ठी परिरओ तस्स ॥५॥"त्ति, तीर्थकराणामभिषेकार्थ शिला अभिषेकशिलाः चूलिकायाः पूर्वदक्षिणापरोत्तरासु क्रमेणावगम्या इति, 'उवरिति अग्रे, 'विक्ख भेण"ति विस्तरेणेति यथा-'जबूद्दीवे दीवे भरहेरखएसु वासेसु'इत्यादिभिः सूत्रः कालादयश्चूलिकान्ता अभिहिताः, एवं धातकीखण्डस्य पूर्वाः पुष्करार्द्धस्यापि पूर्वार्दै पश्चिमाः च वाच्याः, १ सया पुण पाठा० । ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ॥३२४॥ Jan Educatante For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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