Book Title: Sthanang Sutra Dipika Vrutti
Author(s): Vimalharsh Gani, Mitranandvijay
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 427
________________ सू०-३६८-३७१। भीस्थानाङ्ग सूत्रदीपिकावृत्तिः । ॥४९॥ 10.04.000+++000000000000000000000000000000000000000001 जीवा असमारभमाणस्स बउबिहे संजमे कजद त-जिम्भामयाओ सोक्खाओ अबवरोवेत्ता भयद, जिभामएण दुक्खेण असंजोगेत्ता भवइ, फासमयातो सोक्खाओ अवयरोवेत्ता भवइ, एवं चेय ४, बेइंदिया ण जीवा समारंभमाणस्त चउब्धिहे असंजमे कजइ, त-जिभामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ, जिभामरण दुक्खेण संजोएत्ता भवइ, फासामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ (सू० ३६८) । सम्मदिट्ठियाण रइयाण' चत्तारि किरियाओ पं० त०-आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया आच्वक्वाणकिरिया। सम्मदिहियाण असुरकुमाराण चत्तारि किरियाओ प० त-पर्व चेब, पब विगलिंदियवज जाच वेमाणियाण (सू. ३६९) । च उद्दि ठाणेहि संते गुणे नासेजा, त-कोहेण पडिनिवेलेण भकयण्णुयाए मिच्छत्ताभिणिवेसेण । चउहि ठाणे हि संते गुगे दीवेज्जा, तअब्भासवत्तिय परच्छदाणुवत्तिय कज्जहेउ कयपडिकइति वा (सू० ३७०) । रइयाण चाउदि ठाणेहि सरीरुप्पत्ती सिया, त-कोहेण माणेणं मायाए लोमेण', एवं जाव वेमाणियाण', रइयाण चउठाणणियत्तिर सरीरे पंतकोहणिव्यत्तिए जाव लोमणिम्वत्तिए, एवं जाव बेमाणियाण (सू०३७१)। 'चत्तारी'त्यादि, स्पष्टा चेय', नवरं मित्रमिहलोकोपकारित्वात्पुन मित्र-परलोकोपकारित्वात् सद्गुरुवत्, अन्यस्तु मित्रं स्नेहवत्त्वादमित्र परलोकसाधनविध्वंसात् कलत्रादिवत्, अन्यस्त्वमित्र प्रतिकूलत्वान्मित्र निर्वेदोत्पादनेन परलोकसाधनोपकारित्वादविनीतकलत्रादिवत्, चतुर्थोऽमित्र प्रतिकूलत्वात् पुनरमित्रः(त्र) संस्लेशहेतुत्वेन दुर्गतिनिमितत्वात, पूर्वापरकालापेक्षया वेद भावनीयमिति । तथा मित्रमन्तःस्नेडवृत्त्या मित्रस्येव रूपमाकारो बायोपचारकरणात् यस्य स मित्ररूप इति एको, द्वितीयोऽमित्ररूपो बायोपचाराभावात्, तृतीयोऽमित्रः स्नेहवर्जितत्वादिति, For Private Personal Use Om ॥४९॥ Jain Education inte www.jainelibrary.org

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