Book Title: Sthanang Sutra Dipika Vrutti
Author(s): Vimalharsh Gani, Mitranandvijay
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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श्रीस्थानाक
सू० ३०७।
दीपिका वृत्तिः ।
॥३३३॥
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जंबूढीवप्पमाणमेत्ताओ चत्तारि रायहाणीओ पं० २०-सुमणा सोमणसा अच्चिमाली मणोरमा, पउमाए सिवाए सईए अंजूए, तत्थ ण जे से दाहिणपच्चथिमिल्ले रइकरपव्वए तस्स(त्थ) ण चउद्दिसि सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णा चउण्डं अग्गमहिसीण जंबूदीवप्पमाणमेत्ताओ चत्तारि रायहाणीओ पं० तं०-भूया भूयवढे सगा गोथूभा सुदसणा, अमलाए अच्छराए णवमियाए रोहिणीर, तत्थ ण जे से उत्तरपञ्चस्थिमिल्ले रइकरपव्वए तस्स ण चउद्दिसि ईसाणस्स देविंदस्स देवरको चउण्डं अग्गमहिसीण जबूहीवप्पमाणमेत्ताओ चत्तारि रायहाणीभो पं० त०-रयणा रयणुच्चया सव्वरयणा रयणसंचया, वसूप वसुगुत्ताए वसुमित्ताए वसुंधराए (सू० ३०७) ।
सूत्रसिद्धश्चाय', केवलं-"जम्बू १ लवणे धायइ २, कालोए पुखराइ ३ जुयलाई। वारुणी ४ खीर ५ घय ६ इकूखु ७, नंदीसर ८ अरुण ९ दीवुदही ॥१॥"ति गणनयाऽष्टमो नन्दीश्वरः स एव वरः २, अमनुष्यद्वीपापेक्षया बहुतरजिनभवनादिसद्भावेन तस्य वरत्वादिति, तस्य चक्रवालविष्कम्भस्य प्रमाण-१६३८४०००००, उक्त च-"तेवढे कोडिसय, चउरासीईच सयसहस्साई। नंदीसरवरदीवे, विक्खंभो चक्कवालेण ॥१॥"इति, मध्यचासौ देशभागश्च-देशावयवो मध्यदेशभागः, स च नात्यन्तिक इति बहुमध्यदेशभागो न प्रदेशादिपरिगणनया निष्टङ्कितोऽपितु प्राय इति, तत्र इहाजनका मृले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेणेत्युक्तम् , द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहण्यां तूत-"चउरासीइं सहस्साई, उव्विद्धा ओगया सहस्समहे । धरणियले विच्छिण्णा य, ऊणगा ते दससहस्सा ॥१॥ नव चेव सहस्साई, पंचेव य होति जोयणसयाई । अंजणगपञ्चयाणं मूलंमि उ होइ विकखंभो ॥२॥" | कन्दस्येत्यर्थः, “नव चेव सहस्साई, पंचेव य (चत्तारि य) होति जोयणसयाई । अंजणगपव्ययाण, धरणियले होइ
+00000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००000000000.
॥३३३॥
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