Book Title: Sthanang Sutra Dipika Vrutti
Author(s): Vimalharsh Gani, Mitranandvijay
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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2000.00.
सू०३४०-३४१॥
श्रीस्थानाङ्ग
सूत्रदीपिका वृत्तिः । ॥३८४॥
विसट्टमाणि करेत्तए, विसए से विसद्वत्ताए णो चेव ण संपत्तीए करिसु वा करंति वा करिस्सति वा १, मंडुक्कजाइआसीविसस्स ण पुच्छा, पभू ण मंदुक्कजाइआसीविसे भरहप्पमाणमेत बोंदि विसेण' ( विसप.) विसट्टमाणि, सेसंत चेव जाव करिस्सइ ( संति ) वा, उरगजाइआसीविसे पुच्छा, पभू ण उरगजाइआसीविसे जंबूहीवप्पमाणमेत्त बोंदि विसेण सेस त चेव जाव करेइ० स्सति वा, मणुस्सस्सजाइ० पुच्छा, पभू ण मणुस्सजाइआसीविसे समयखेत्तप्पमाणमेत बोंदि विसेण विसपरिणत विसहमाणि करेत्तए, विसप से विसद्वत्ताप णो चेव ण जाव करेस्सइ (०स्सें ति) वा (सू. ३४१)।
'चत्तारि पसप्पए' इत्यादि, अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायममिसम्बन्धः--अनन्तरसूत्रे देवा देव्यश्च निर्दिष्टाः, ते च भोगवन्त मुखिताश्च भवन्तीति भोगान् सुखानि चाश्रित्य प्रसर्पकभेदाभिधानायेदमुच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या-प्रकर्षेण सर्पन्ति-गच्छन्ति भोगार्थ देशानुदेश सञ्चरन्ति आरम्भपरिग्रहतो वा विस्तारं यान्तीति प्रसर्पकाः, 'अणुप्पप्णाण"ति द्वितीयार्थे पष्ठीति अनुत्पन्नानसम्पन्नान् भोगान्–शब्दादीन् तत्कारणद्रविणाङ्गनादीन् वा 'उप्पाएत्त'त्ति उत्पादयितुं सम्पादनाय अथवाऽनुत्पन्नानां भोगानामुत्पादयिता-उत्पादकः सन् एकः कोऽपि प्रसर्पति-प्रगच्छति, प्रसर्पको वा प्रगन्ता भवतीति गम्यते, प्रसप्र्पन्ति च भोगाद्यर्थिनो देहिनः, उक्तं च--"धावेइ रोडणं तरइ, सागर भमइ गिरिनिगुंजेसु । मारेइ बंधवंपि हु, पुरिसो जो होइ घणलुद्धो ॥१|| अडइ बहु वहइ भरं, सहइ छुई पावमायरइ धिट्टो । कुलसीलजाइपच्चय-ट्टिई च लोभइओ चयइ ॥२॥" तथा पूर्वोत्पन्नानां पाठान्तरेण प्रत्युत्पन्नानां वा 'अविप्पओगेण ति अविप्रयोगाय रक्षणार्थमिति 'सौख्याना'मिति भोगस
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॥३८४॥
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