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६ : श्रमण/जुलाई-दिसम्बर २००२ समुद्रविजय से महानेमि, सत्यनेमि, अरिष्टनेमि आदि १३ भाइयों का उल्लेख है। ___भगवान् अरिष्टनेमि अत्यन्त बलशाली एवं एक हजार आठ शुभ लक्षणों२२ एवं वज्र ऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के धारक थे।३२ वे १० धनुष लम्बे और मधुर सुर वाले थे। अरिष्टनेमि के धैर्य, शौर्य और प्रबल पराक्रम की अनेक घटनाएँ जैन आगमों में वर्णित हैं।३४ भगवान् अरिष्टनेमि के पिता महाराज समुद्रविजय और महारानी शिवा ने उनकी चिन्तनशील एवं गम्भीर मुद्रा से सशंकित होकर समय आने पर उनका विवाह भोजकल के राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती से करना निश्चित किया। विवाह के पहले बारात में जाते हुए अरिष्टनेमि का बाड़े में बन्द किये हुए पशुओं की चीत्कार सुनना, सारथी से उसका कारण पूछना तथा निर्दोष प्राणियों की आसन्न हिंसा से उनके मन में विरक्ति पैदा होना और उसके पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करना आदि उनके जीवन की प्रमुख घटनाएँ हैं। इनका वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार से मिलता है। उत्तराध्ययनसूत्र में अत्यन्त संक्षिप्त शैली अपनाने के कारण सारथी को आभूषण आदि देने के पश्चात् अगली गाथा में दीक्षा का वर्णन है तो उत्तराध्ययन की सुखबोधावृत्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और भवभावना आदि ग्रन्थों में बाद में उनके वर्षीदान का उल्लेख है। चउपन्नमहापुरिसचरियं में तोरण से लौटने के पूर्व वर्षीदान का उल्लेख है जो अन्य आचार्यों के वर्णन से मेल नहीं खाता है। दिगम्बर-ग्रन्थों में पूरे कथानक को अलग मोड़ दिया गया तथा उन्हें विरक्त करने के लिए कृष्ण द्वारा पशुओं को एकत्र कराने का उल्लेख है।३५ साधक जीवन
आवश्यकनियुक्ति के अनुसार चौबीस तीर्थङ्करों में से भगवान् महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ और वासुपूज्य ने प्रथमवय में प्रव्रज्या ग्रहण की तथा शेष तीर्थङ्करों ने पश्चिमवय में।३६ भगवान् अरिष्टनेमि ३०० वर्ष तक गृहस्थ आश्रम में रहकर श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में द्वारिका नगरी के रैवतक नामक उद्यान में प्रव्रज्या ग्रहण की थी।३७ यहाँ यह ध्यातच है कि द्वारिका अरिष्टनेमि की जन्मभूमि नहीं थी। भगवान् ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि के अतिरिक्त सभी २२ तीर्थङ्करों ने अपनी जन्मभूमि से ही अभिनिष्क्रमण किया था।२८ अरिष्टनेमि के पारणा के स्थान के सन्दर्भ में आवश्यकनियुक्ति, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति तथा हरिवंशपुराण सभी ने द्वारिका या द्वारवती नगरी का उल्लेख किया है। श्वेताम्बर आगम तथा आगमेतर-साहित्य के अनुसार दीक्षा लेने के पश्चात् भगवान् अरिष्टनेमि ५४ रात्रि-दिवस तक छद्मस्थ पर्याय में रहे। इस बीच निरन्तर वे व्युत्सर्गकाय त्यक्त देह से ध्यानावस्थित रहे। वर्षा ऋतु के आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन उर्जयन्त (रैवत) नामक शैल शिखर पर चित्रा नक्षत्र के योग में उन्हें अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात केवल
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