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[ १२ ] भूमिका के योग्य विहित अनुष्ठान रूप धर्म, स्वच्छाशय प्रयुक्त अर्थ और विस्रम्भयुक्त अर्थात् मर्यादानुकूल वैवाहिक नियन्त्रण से स्वीकृत काम, जिनवाणी के अनुसार, परस्पर अविरोधी हैं। ये पुरुषार्थ परस्पर अविरोधी तभी होते हैं जब वे मोक्षाभिमुख होते हैं और जब वे मोक्षाभिमुख होकर परस्पर अविरोध की स्थिति में हों, असपत्न हों, तो वे सम्यक् होते हैं, इसलिए आचरणीय होते हैं। किन्तु जब मोक्ष मार्ग से विमुख होकर पुरुषार्थ-चतुष्टय परस्पर विरोध में या निरपेक्ष होते हैं, तब वे असम्यक् या अनुचित एवं अनाचरणीय होते हैं । (ब) बौद्ध दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय
भगवान् बुद्ध यद्यपि निवृत्ति मार्गी श्रमण परम्परा के अनुगामी हैं, तथापि उनके विचारों में अर्थ एवं काम पुरुषार्थ के सम्बन्ध में भी दिशाबोध उपलब्ध है। दीघनिकाय में अर्थ की उपलब्धि के लिए श्रम करते रहने का सन्देश उपलब्ध होता है। बुद्ध कहते हैं, आज बहुत सर्दी है, आज बहुत गर्मी है, अब तो सन्ध्या ( देर ) हो गयी, इस प्रकार श्रम से दूर भागता हुआ मनुष्य धनहीन हो जाता है। किन्तु जो सर्दी-गर्मी आदि को सहकर कठोर परिश्रम करता है, वह कभी सुख से वंचित नहीं होता जैसे प्रयत्नवान रहने से मधुमक्खी का छत्ता बढ़ता है, चींटी का वाल्मीक बढ़ता है, वैसे ही प्रयत्नशील मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ता है। इतना हो नहीं, प्राप्त सम्पदा का उपयोग किस प्रकार हो, इस सम्बन्ध में भो बुद्ध का निर्देश है कि सद्गृहस्थ प्राप्त धन के एक भाग का उपभोग करे, दो भागों को व्यापार आदि कार्यक्षेत्र में लगाये और चौथे भाग को आपत्ति काल में काम आने के लिए सुरक्षित रख छोड़े। आज का प्रगतिशील अर्थशास्त्री भी आर्थिक प्रगति के लिए इससे अच्छे सूत्र प्रस्तुत नहीं कर सकता। बुद्ध केवल अर्थशास्त्री के रूप में ही नहीं, वरन् एक सामाजिक अर्थशास्त्र के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे इस बारे में भी पूर्ण सतर्क हैं कि यदि समाज में धन का समुचित वितरण नहीं होगा तो अराजकता और असुरक्षा उत्पन्न होगी। वे कहते हैं, निर्धनों को धन नहीं दिये जाने
१. दशवकालिक नियुक्ति, २६२-२६४. २. दीघनिकाय, ३।८।२. ३. वही, ३।८।४.
४. वही, ३८।४. Jain Education International For Private & Personal Use Only
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