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श्रमण एवं ब्राह्मण परम्परा में 'परमेष्ठी' पद
६७ बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन दोनों ही समकालीन मान्य किये गये हैं । बौद्ध त्रिपिटकों में भी इस पद का प्रयोग दृष्टिगत नहीं होता। आगम और त्रिपिटक दोनों में परमेष्ठी पद न होने से यह शंका होना स्वाभाविक है, क्या उस काल-उस समय में इसका प्रचलन नहीं था ?
जैन आगमों को ग्रन्थारूढ करने का श्रेय देवद्धिगणि क्षमाश्रमण को है । आगम ज्ञान उससे पूर्व परम्परा से मौखिक ही होता था। गुरु से अपने शिष्य को श्रत परम्परा से प्राप्त होता था। आधुनिक विद्वान् यह मान्य करते हैं कि गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त श्रत में कुछ स्खलना भी होने की संभावना है । अतः स्खलना भी इसमें कारण हो सकती है।
वेदों को यदि आगमों से प्राचीन माना भी जाय तब भी यह प्रश्न उभरता है कि वर्तमान आगमों में द्वादशाङ्गी ही दृष्टिगत होता है । द्वादशाङ्गी में भी बारहवाँ अंग 'दृष्टिवाद' का भी विच्छेद हो जाने से आज मात्र एकादश अंग ही उपलब्ध हैं। आगमों में द्वादशाङ्गी के अतिरिक्त चतुर्दश-पूर्व का भी समावेश होता है। चौदह पूर्व भी काल के प्रभाव से विच्छिन्न हो गये हैं। अभी चौदह पूर्व भी उपलब्ध नहीं हैं । आगमश्रुत आज अपूर्ण होने से यह भी कहा नहीं जा सकता कि यह परमेष्ठी पद वेदों से उद्धृत है या वेदों की छाप आगमों पर है ।
जो भी हो आज जितना प्रचलन परमेष्ठी पद का जैन धर्म में है, उतना अन्य धर्मों में नहीं । जैनेतर साहित्य में अनेक बार उल्लेख होने पर भी वहाँ इसका प्रचलन अधिक नहीं है। 'पंच परमेष्ठी' नाम से मात्र जैन धर्म को ही इंगित किया जाता है। प्रचलन हो या न हो परमेष्ठी से तात्पर्य सर्वत्र परम पद में स्थित आत्मा का, उच्च-अवस्था प्राप्त देव-गुरु तत्त्व का ही लिया गया है । जैन धर्म में परमेष्ठी पद के अन्तर्गत पाँच पदों को स्वीकार किया है। इसकी आराधना/साधना पंच परमेष्ठी मंत्र (नमस्कार महामंत्र) द्वारा की जाती है। आगम साहित्य में मतभेद होने पर भी 'नमस्कार महामंत्र' का माहात्म्य सभी सम्प्रदायों में एकमत से स्वीकार किया है।
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