Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 104
________________ १०२ श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२ विशिष्ट अध्ययन करते हैं तो हम यह पाते हैं कि समस्त पूर्व विचारकों के विचार एकांशी सत्य ही थे सर्वांशी सत्यता की उनमें कमी थी, जिसके कारण उन समस्त विचारों को स्याद्वादियों ने संग्रहीत किया। उपर्युक्त तर्क-वितर्कों की प्रक्रिया और दूर तक चल सकती है किन्तु मेरी दृष्टि से न तो किसी आलोचना या विवेचना का अन्त है और न ही तर्क-कुतर्क का और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मनुष्य स्वयं स्वतन्त्रता पूर्वक चिन्तन करता है परिणामतः विचारों की विभिन्न दृष्टियाँ जन्म लेती हैं। यह ठीक है कि स्याद्वादियों एवं शून्यवादियों ने दार्शनिक क्षेत्र में तत्त्व विषयक विवादों को दूर करने का प्रयास किया है किन्तु फिर भी इनके ये प्रयास अन्तिम नहीं कहे जा सकते और न तो उन्हें सर्वदा दोषमुक्त ही कहा जा सकता है। एकांत वादियों ने जिस प्रकार तत्त्व विषयक विचारों को प्रस्तुत किया (भले ही वे दोषयुक्त रहे हों) उसी प्रकार स्याद्वाद एवं शून्यवादियों ने भी केवल विचारों को ही प्रस्तुत किड़ी (भले ही इनके सिद्धांतों में दोषों को दूर करने का प्रयास निहित हो)। किन्तु तत्त्व वास्तव में क्या है ? इसे सम्यक् प्रकार से या पारमार्थिक दृष्टि से जान पाना असम्भव सा लगता है। सहायक ग्रन्थ सूची। १. अनेकांतवाद : एक परिशीलन--विजयमुनि शास्त्री, सन्मतिः ज्ञानपीठ आगरा, (१९६१) २. चतुः शतक -आर्यदेव ३. भारतीयदर्शन (भाग १)-डा० एस. राधाकृष्णन् अनु० स्व०नन्द किशोर गोभिल, राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरीगेट, दिल्ली(१९६७) ४. स्याद्वादमञ्जरी--मल्लिषेण, श्रीमदराजचन्द्र आश्रम, अगास (गुजरात) १९७० ५. स्याद्वाद और सप्तभंगी नय (आधुनिक व्याख्या)- डा० भिखारी राम यादव, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ५--- (९९८९) ६ शून्यवाद एवं स्याद्वाद-पद्मभूषण पं० दलसुख मालवणिया पृ० २६५, श्री आनन्दऋषि संपा० श्रीचन्द्र सुराना अभिनन्दन ग्रन्थ श्री महाराष्ट्र स्थानकवासी जैनसंघ, साधना सदन, नानापैठ पूना (९९७५) . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128