Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 103
________________ स्याद्वाद एवं शून्यवाद १०१ पुनः शून्यवाद के विषय में हम यह कहना चाहेंगे कि, जब उन्होंने तत्त्व के विषय में यह कहा है कि वह अनिर्वचनीय है तब फिर तत्त्व के लिए 'शून्य' यह कथन करना भी तो एक कथन ही है तब वे किस प्रकार कहेंगे कि तत्त्व अनिर्वचनीय है ? इसकी तुलना में हम स्याद्वाद को उत्तम कहेंगे क्योंकि उन्होंने सभी प्रकार के कथनों को (तत्त्व विषयक हों या अन्य किसी भी विषय में हों ) स्वीकृति दी है । वैसे शून्यवादियों ने उपर्युक्त 'शून्य' विषयक संशय को दूर करने के लिए यह कहा है मान्यया भाषया म्लेच्छः शक्यो ग्राहयितुं यथा । न लौकिकमते लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा ॥ चतुःशतक: तथापि कथन की दृष्टि से स्याद्वाद ही अधिक उत्तमप्रतीत होता है । शून्यवादियों की वस्तुविषयक दृष्टि अधिक समन्वयपूर्ण न होकर केवल एकांतिक मतों के विवादों का अंत ही कर पाती है जबकि स्याद्वादियों की दृष्टि पूर्णरूपेण समन्वयात्मक है क्योंकि सही माने में तो उन्होंने ही सभी मतों को ग्रहण करके एक नवीन विचारधारा को जन्म दिया है । पुनः शून्यवाद की तुलना में जब हम स्याद्वाद का सूक्ष्म अध्ययन करते हैं तब हमें यह प्रतीत होता है कि सामान्य रूप से अध्ययन करने पर तो स्याद्वाद केवल समस्त पूर्व दार्शनिक विचारों का एक संग्रहमात्र है, क्योंकि इस सिद्धान्त ने समस्त दार्शनिक विचारों (तत्त्व सत् भी है, असत् भी है, सत्-असत् भी है, न सत् न असत् भी है ) कों संग्रहीत करके उन्हीं को एक नया रूप दे दिया है स्याद्वाद के नाम से । इस दृष्टि से हमें शून्यवाद अधिक उत्तम प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होंने अपने सिद्धांत में किसी भी पूर्व दार्शनिक मान्यता को स्थान नहीं दिया और न तो उनका संग्रह ही करके एक ही विषय की पुनरावृत्ति की स्याद्वादियों की भांति । 1 मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि, यद्यपि तत्त्व के अनेक धर्मों या गुणों का अनुभव तो शून्यवादियों ने भी किया था, किन्तु उन्होंने उपर्युक्त स्याद्वाद की समस्याओं का ध्यान करके ही कोई भी तत्व विषयक कथन करना उचित नहीं समझा । वैसे स्याद्वाद की उपर्युक्त समस्या इस सिद्धान्त का सामान्य अध्ययन करने पर ही आती है किंतु जब हम Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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