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पर्यावरण और अहिंसा है। स्वार्थ से पराभूत तथा भोग को एक मात्र लक्ष्य मान लेने वाली आधुनिक मानसिकता ने समाज में व्याप्त पारस्परिक सहयोग, सद्भाव, प्रेम, त्याग इत्यादि मूल्यों को अप्रासंगिक एवं अव्यावहारिक बना दिया है। सामाजिक क्षेत्रों, विशेषकर राजनीति एवं आर्थिक साम्राज्यवाद ने हिंसा को अपना साधन बनाया है साम्प्रदायिक, जातीय एवं आतंककारी हिंसा पूरे विश्व-जीवन में व्याप्त है। हिंसा का प्रभाव बढ़ रहा है तथा उसे निर्णायक भी समझा जाने लगा है । इससे स्पष्ट होता है कि मानव का स्तर गिरा है और उसका वैचारिक एवं मानवीय पक्ष भी क्षीण हुआ है। आचारांग सूत्र के अनुसार 'इह 'संति-गया दविया, णांव करंवंति जीविअं' अर्थात् संयंमी पुरुष अन्य प्राणियों की हिंसा के द्वारा अपना जीवन चलाना नहीं चाहते । संयम करने का निर्देश सर्वप्रथम हिंसा न करना है। अपनी तुच्छ वासनाओं और महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सभी क्षेत्रों में हिंसा का बढ़ता प्रयोग समाज एवं मानव के लिए खतरे की घंटी है। आने वाले मानव में अहिंसा की प्रवृत्ति को संस्कारित करना होगा, अहिंसा के समाज दर्शन को जीवन-पद्धति बनाना होगा। _ आज विज्ञान मानव के जीवन पद्धति का अभिन्न अंग बन चुका है । वैज्ञानिक प्रयासों को भी अहिंसात्मक प्रणालियों के द्वारा विकसित करने की आवश्यकता है। विज्ञान मानता है कि मानव पर्यावरण का ही एक महत्त्वपूर्ण घटक है और जनसंख्या वृद्धि ने उसे अत्यधिक प्रभावित किया है। विज्ञान और ज्ञान का सम्यक् एवं विवेकपूर्ण उपयोग आवश्यक है । विज्ञान एवं पर्यावरण किसी राष्ट्र, समाज अथवा व्यक्ति की सम्पत्ति नहीं है, उस पर तो सम्पूर्ण मानवता का अधिकार है एवं उसके प्रति सभी समान रूप से उत्तरदायी हैं। ___अहिंसा जैन शासन का महामन्त्र है। तत्त्वार्थसूत्र में मन-वचनकाय योग से जीव के भाव प्राण, द्रव्य प्राण अथवा दोनों का वियोग करना ही हिंसा कहा गया है। यहाँ तक कि बिना प्रयोजन जहां-तहां जाना, वृक्षादि का छेदन, पृथ्वी खोदना, जल बिखेरना, अग्नि जलाना आदि भी हिंसा का ही रूप कहा गया है। अतः अहिंसा के महत्त्व को जन सामान्य तक पहुँचाना तथा अहिंसा को अनिवार्य मानव धर्म के रूप में स्वीकार करना होगा। वैज्ञानिक प्रगति एवं विभिन्न कर्मों के
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