Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 99
________________ स्याद्वाद एवं शून्यवाद ९७. की भांति । प्रतीत्यसमुत्पाद का समर्थक होने के कारण हम शून्यवाद को सापेक्षवाद भी कह सकते हैं क्योंकि प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार किसी भी वस्तु या विषय का अपना कोई निश्चित, निरपेक्ष तथा स्वतन्त्र स्वभाव नहीं है। अतः तत्त्व सम्बन्धी कोई भी विचार या कथन निरपेक्ष ढंग से नहीं किया जा सकता। स्याद्वाद एवं शून्यवाद में निहित भेदाभेद : उपयुक्त दोनों सिद्धान्तों के परिचयात्मक विवरण से स्पष्ट है कि स्याद्वाद भावपरक एवं शून्यवाद निषेधपरक है। सामान्य दृष्टि से विचार करने पर दोनों में कोई साम्य नहीं प्रतीत होता है। परन्तु दोनों ही सिद्धान्तों का प्रतिपादन, वस्तुतः मानव ज्ञान की अपूर्णता एवं मर्यादा, भावाभिव्यक्ति की सीमा, वस्तुविषयक परस्पर सापेक्षता एवं वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता की दृष्टि में रखकर किया गया है। आगे दोनों सिद्धान्तों में निहित परस्पर साम्य एवं वैषम्य के तत्त्वों पर विचार करेंगे :(क) दोनों सिद्धान्त एकान्तिक मन्तव्यों के निषेधक एवं अनेकान्तिक विचारों के विधेयक हैं । बुद्ध ने शाश्वतवाद, व उच्छेदवाद को एकान्तिक होने से असत्य या मिथ्या कहा और इन्हें त्यागने का उपदेश दिया। उनकी दृष्टि में केवल अपने ही विचारों को सर्वोत्कृष्ट समझने के कारण ही कोई भी विचारक अपनी अपेक्षा अन्य को हेय समझता है। इसी कारण उसका ऐसा विचार विवादग्रस्त है। बुद्ध ने स्पष्ट कहा-दिद्विम्मि सो न पच्चेति किच्चं' अर्थात् विद्वज्जन ऐसी विचारधाराओं में विश्वास नहीं करते हैं । बुद्ध के इन्हीं उपदेशों के आलोक में सभी पूर्व-विवादों का अन्त करने के लिए, सभी मतों के निषेध रूप शन्यवाद की स्थापना की गई। महावीर ने वादों की कमियों का उल्लेख करके उनमें समन्वय की दृष्टि से उपदेश दिया। दोनों मत सापेक्षिक दृष्टिकोण अपनाकर ही एकान्तिक मतों का निराकरण करते हैं। वस्तुतः शून्यवाद का 'शून्य' तथा स्याद्वाद में संलग्न स्याद् शब्द सापेक्षता के ही सूचक हैं। यहाँ यह कहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128